बिसनपुर, बिहार के सुदूर इलाके में बसा एक छोटा सा गाँव था, जहाँ अभी भी इंसान की असली पहचान उसके कर्मों से होती थी। इसी गाँव में रहता था एक युवक – अर्जुन। एकदम सीधा-सादा, पर मेहनती और ईमानदार। उसकी उम्र होगी कोई पच्चीस साल, पर ज़िम्मेदारियाँ किसी पचास साल के इंसान जैसी।
पिता की असमय मृत्यु ने उसे घर का मुखिया बना दिया था। मां बीमार रहती थीं और दो छोटे भाई-बहन अभी स्कूल में पढ़ रहे थे। अर्जुन ने पढ़ाई के साथ-साथ खेतों का काम भी संभाल लिया था। गाँव के लोग उसकी ईमानदारी और मेहनत की मिसाल देते थे।
लेकिन एक दिन गाँव में एक नई हवा चली – शहर से लौटे रंजीत बाबू, जो अब ‘ठेकेदार साहब’ कहलाते थे, गाँव में एक सरकारी सड़क निर्माण का ठेका लेकर आए। उन्होंने ऐलान किया, "जिसे भी काम चाहिए, कल से मेरे पास आ जाए। मज़दूरी भी ज़्यादा दूंगा, और पक्का काम मिलेगा!"
अर्जुन भी पहुँचा, आखिर घर चलाने के लिए पैसों की ज़रूरत तो थी ही। काम मिला – हिसाब-किताब का। वजह ये थी कि अर्जुन पढ़ा-लिखा था और बाकी मजदूरों से तेज दिमाग रखता था।
शुरुआत के कुछ दिन सब ठीक चला। मजदूरों को रोज़ मजदूरी मिलती, सामान समय पर आता और काम भी अच्छे से होता। अर्जुन को भी हर शाम एक छोटी सी टेबल पर बैठकर रजिस्टर भरते देख गाँव के लोग उसकी इज्ज़त करने लगे थे।
लेकिन धीरे-धीरे चीज़ें बदलने लगीं।
रंजीत बाबू ने सस्ते और घटिया सामान मँगवाने शुरू कर दिए। मजदूरों की मजदूरी भी कभी-कभी काट ली जाती। अर्जुन ने पहले एक-दो बार कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन रंजीत बाबू ने उसे डपट दिया – "देखो अर्जुन, ज्यादा ईमानदारी का चश्मा मत पहनो। ये काम सरकारी है, सब चलता है। तुम बस रजिस्टर में सही-सही चढ़ा दो, बाकी मैं देख लूंगा।"
अर्जुन कुछ देर चुप रहा, लेकिन उसका मन बेचैन रहने लगा। एक तरफ घर की जिम्मेदारियाँ, मां की दवा, भाई-बहन की फीस और दूसरी तरफ यह झूठ, धोखा और भ्रष्टाचार।
एक रात वह छत पर बैठा था। माँ खाँसते हुए आयीं और बोलीं – "बेटा, तेरे बाबूजी कहते थे कि जेब का वज़न कभी इतना न बढ़ा लेना कि दिल हल्का पड़ जाए। इंसान की असली कमाई उसका नाम है, और वो एक बार चला गया तो लाखों रुपये भी उसे नहीं लौटा सकते।"
अर्जुन को जैसे कोई दिशा मिल गई हो। उसने तय कर लिया – अब चाहे जो हो, वह गलत का साथ नहीं देगा।
अगली सुबह वह रंजीत बाबू के पास पहुँचा और बोला – "मैं रजिस्टर में झूठ नहीं लिखूंगा। ना ही मजदूरों का हक काटूंगा। ये आपका काम है, मेरा नहीं।"
रंजीत बाबू हँसे – "तू क्या करेगा? नौकरी छोड़ देगा? और खाएगा क्या?"
अर्जुन ने कहा, "मेरे हाथ-पाँव सलामत हैं, खेत भी हैं, मेहनत करके खा लूंगा, लेकिन झूठ नहीं सहूंगा।" और वह वहाँ से चला गया।
उसके बाद एक के बाद एक मज़दूरों ने भी अर्जुन की बातों से प्रभावित होकर काम छोड़ दिया। गाँव में धीरे-धीरे रंजीत बाबू की पोल खुलने लगी। एक दिन किसी ने जिला अधिकारी को शिकायत कर दी। जांच हुई और सड़क निर्माण में भारी घोटाला पकड़ा गया। रंजीत बाबू को जेल हो गई।
इस घटना के बाद अर्जुन की इज्ज़त और बढ़ गई। लोगों ने उसे पंचायत का सदस्य चुन लिया। वह अब गाँव के विकास के लिए काम करने लगा, पूरी ईमानदारी और निष्ठा से। सरकार की योजनाएं अब सीधे गाँव तक पहुँचने लगीं।
कुछ सालों बाद अर्जुन ने गाँव में एक छोटा स्कूल शुरू किया। उसका सपना था कि कोई और बच्चा अपनी पढ़ाई बीच में न छोड़े, जैसे उसे छोड़नी पड़ी थी। वह बच्चों को बताता – "दुनिया में किसी के बगैर कुछ रुकता नहीं। अगर हिम्मत और हौसला हो, तो कोई भी राह मुश्किल नहीं। लेकिन याद रखो – दिल का वज़न जेब के वज़न से ज़्यादा होना चाहिए, वरना इंसान इंसान नहीं, सौदेबाज़ बन जाता है।"
गाँव के बच्चे आज भी उस स्कूल की दीवारों पर लिखी पंक्तियाँ पढ़ते हैं –
"ईमान बिक जाए तो इंसान नहीं बचता,
और इंसान बच जाए तो ईमान खुद आ जाता है।"