Teri Meri Khamoshiyan - 13 in Hindi Love Stories by Mystic Quill books and stories PDF | तेरी मेरी खामोशियां। - 13

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तेरी मेरी खामोशियां। - 13

सुल्तान मेंशन – नीचे हॉल में सब नाश्ते में मशगूल थे।

अमन तेज़ क़दमों से सीढ़ियाँ उतरता हुआ नीचे आया। उसकी आँखों में गुस्सा था और चाल में बेचैनी। सानिया, रुकसाना, रूबी सब उसकी आहट से चौकन्ना हो गए।

नजमा बेगम ने हैरानी से देखा, “क्या हुआ अमन? इस वक़्त इतनी जल्दी—बहु के साथ नाश्ता नहीं किया?”

अमन ने बिना देखे जवाब दिया, आवाज़ ठंडी और सीधी: “मैं किसी के साथ खाना खाने का आदी नहीं हूँ।”

हॉल में अचानक एक अजीब सी ख़ामोशी छा गई।

रूबी ने माहौल हल्का करने को मुस्कराकर कहा, “अरे भाई, भाभी पहली बार आई हैं… थोड़ा तो तमीज़—”

अमन की नज़र उसकी ओर उठी। वो नज़रे, जैसे बर्फ़ का पत्थर हों— “तमीज़ मुझे सिखाने की कोशिश मत करो, रूबी। जिस घर में रिश्ते जबरन बंधे हों, वहाँ तमीज़ दिखाना बेवकूफी है।”

रूबी की मुस्कान एक पल में गायब हो गई। नजमा का चेहरा भी सख़्त हो गया।

लेकिन इससे पहले कि माहौल और बिगड़ता, जावेद खान ने अपनी चाय रखते हुए कहा, “अमन, तुम्हारी दादी ऊपर बुला रही हैं।”

सुनते ही अमन की आँखों का ताप थोड़ा सा उतरा। उसने बिना जवाब दिए बस सिर हल्का सा झुकाया और वापस सीढ़ियों की ओर मुड़ गया।

सभी को पता था, इस घर में अगर किसी का हक़ अमन की नर्मी पर है… तो वो सिर्फ़ उसकी दादी का है।

दादी का कमरा, सुबह का वक्त

खिड़की से आती धीमी रौशनी कमरे की पुरानी दीवारों को सुनहरी बना रही थी। एक कोने में दादी जान अपने पसंदीदा गद्देदार कुरसी पर बैठी थीं। उनके हाथों में तस्बीह नहीं, आज बस एक सुकून की तलाश थी।

दरवाज़ा बिना खटखटाए खुला।

अमन अंदर दाख़िल हुआ, चेहरे पर वही पुरानी उदासी, आँखों में बेमानी सी थकावट।
दादी ने सिर उठाकर देखा, हल्की-सी मुस्कान होठों पर आई।

“आ गए… बैठो। बात करनी है तुमसे।”

अमन चुपचाप बिस्तर के किनारे बैठ गया, एकदम खामोश।

दादी ने उसकी ओर देखा,
“नायरा अब इस घर की बहू ही नहीं, तुम्हारी ज़िम्मेदारी भी है। तुमने बिना कुछ कहे निकाह कर लिया, मगर अब बिना जज़्बात के निभाओगे कैसे?”

अमन का लहजा ठंडा था, “जिस चीज़ में दिल नहीं, उसमें निभाने का क्या फायदा?”

“तुम्हारे अब्बा की तरह ही हो गए हो,” दादी ने थके लहजे में कहा।
“बात-बात पर दीवार खड़ी कर देना। अमन… ये रिश्ता सिर्फ़ क़बूल कहना नहीं होता, निभाना पड़ता है… समझना पड़ता है।”

अमन की नज़रें अब ज़मीन पर थीं, चेहरा सख़्त था लेकिन आंखें छलकने को तैयार।

“मैं जानती हूँ तुम क्या-क्या सह चुके हो… लेकिन उस लड़की ने क्या बिगाड़ा है? जो तुम्हारी ज़िंदगी में दाख़िल होते ही गुनहगार बन गई?”

अमन ने गहरी सांस ली, फिर बोला—
“मैं मोहब्बत के नाम से अब नफ़रत करता हूँ, दादी… और नायरा को उस नफ़रत की छांव में नहीं लाना चाहता। वो आप सबकी पसंद थी… अब निभाना भी आपकी पसंद की तरह ही होगा।”

दादी का चेहरा बुझ-सा गया, मगर वो चुप नहीं रहीं।
धीमे से बोलीं,
“ठीक है… मोहब्बत ना सही, लेकिन तहज़ीब तो निभा सकते हो? इस घर की इज़्ज़त, उस लड़की का मान, मेरा सुकून—ये सब मांग रही हूँ मैं। अपने लिए नहीं, मेरे लिए।”

अमन थोड़ी देर चुप रहा, फिर कंधे झटकते हुए बोला—
“जो आप चाहती हैं… वो हो जाएगा। लेकिन जो मैं नहीं चाहता, वो किसी भी कीमत पर नहीं होगा।”

दादी ने उसकी ओर देखा—उसकी बेरुखी में भी वो अपने टूटे हुए बच्चे को देख रही थीं।

“ठीक है…” उन्होंने तस्बीह उठाई,
“अब ये मेरा आख़िरी यक़ीन है तुम पर, इसे मत तोड़ना।”

अमन कुछ नहीं बोला। बस उठकर चला गया।

पीछे दादी की आँखों में एक दुआ तैर रही थी…
कि शायद किसी रोज़ उस पत्थर-से चेहरे में भी कोई मुस्कराहट पलट आए…

सवेरे की हल्की धूप, पर्दे की ओट से छनती

नायरा दरवाज़े के पीछे खड़ी सब कुछ सुन चुकी थी। अमन की बेरुखी… दादी की मासूम ख्वाहिश… और एक ऐसी उम्मीद जो अब उसकी झोली में डाल दी गई थी।

वो धीमे क़दमों से अंदर आई, हाथ में ट्रे थी जिसमें गर्म दूध और दादी जान की सुबह की दवा रखी थी। चेहरे पर वही नर्मियत, वही झुकी पलकों का सलीका, मगर आँखों में कुछ बदल चुका था।

दादी जान ने देखा तो हल्की मुस्कान उनके होंठों पर तैर गई।

“आ गई मेरी बहू… मेरी सुबह की राहत ले कर…”

नायरा चुपचाप ट्रे टेबल पर रखकर पास बैठ गई।

दादी ने उसका हाथ थामा। उनकी हथेलियाँ काँप रही थीं… मगर जज़्बात मजबूत थे।

“तुमने सुना सब, है ना?”

नायरा की पलकें भीगीं… उसने सिर झुका कर बस 'हाँ' में हलका इशारा किया।

दादी की आंखें थोड़ी भर आईं—
“बेटा… अमन को मैंने गोद में खिलाया है। बचपन से देखा है उसे टूटते हुए… बिखरते हुए। जब उसकी माँ चली गई… तब वो रातों में चुपचाप रोता था। फिर जब उसकी पहली मोहब्बत ने उसे छोड़ा… वो हँसना ही भूल गया।”

उनकी आवाज़ टूटने लगी,
“मगर एक माँ जानती है… कि उसका बच्चा अंदर से कितना मासूम है। वो सिर्फ डरता है… फिर से जुड़ने से, फिर से टूट जाने से।”

नायरा की आँखें अब भीगी थीं। मगर उनमें एक नई रोशनी थी—जैसे किसी ने एक रास्ता दिखा दिया हो… मुश्किल सही, मगर सच्चा।

दादी जान ने नायरा का चेहरा थामा—
“तुम अब उसकी बीवी नहीं सिर्फ़… उसकी ज़िम्मेदारी भी हो। और मेरी आखिरी ख़्वाहिश है कि तुम उसे दोबारा जीना सिखाओ। उसके लबों पर हँसी लाओ… उसकी आंखों में मोहब्बत…”

“क्या तुम ये कर पाओगी, नायरा?”

नायरा के होठ थरथरा उठे। कुछ पल को उसकी रूह सन्न हो गई। मगर फिर… वो झुकी और दादी जान की गोद में सिर रख दिया।

“मैं कोशिश करूँगी… पूरे दिल से,” उसके लबों से निकला, जैसे कोई क़सम हो।

दादी ने उसकी पीठ सहलाई,
“बस यही मेरा आखिरी चैन है…”

कमरे में खामोशी थी… मगर उस खामोशी में दुआओं की गूंज थी।

दोपहर की नर्मी धूप आँगन को सोने जैसी चमक दे रही थी। घर की औरतें दरगाह की रस्म के लिए तैयार हो चुकी थीं।
किसी के हाथ में चादर थी, किसी के पास अगरबत्ती, तो कोई काले धागे और मन्नत के धागों को समेटे हुए था।

नायरा हल्के गुलाबी रंग के सूट में, अपने खुले बालों को समेटती हुई दरवाज़े के पास खड़ी थी। उसकी आंखों में आज कुछ ठहराव था… कुछ सोचती, कुछ समझती सी।

"भाभी, चलिए… सब तैयार हैं," रूबी उसकी ओर आई, और मुस्कराई।

तभी सीढ़ियों से अमन नीचे उतरता दिखाई दिया।

सादा सफेद कुर्ता, हल्के बिखरे बाल, और चेहरे पर वही पुरानी खामोशी।

नायरा ने अनजाने में उसे देख लिया… और उसके कदम थम से गए।

वो अब उसका शौहर था… लेकिन कितना अजनबी।
मगर आज उसकी चुप्पी में भी एक किस्म का सुकून था।

अमन सीधा जाकर दादी जान के पास खड़ा हुआ।

"चलिए दादी…" उसने शांत लहजे में कहा।

दादी की आंखें भर आईं, पर उन्होंने खुद को सँभालते हुए कहा,
"हाँ बेटा, चलो… लेकिन बहू को भी साथ ले जाना। आज मन्नत उसकी नई ज़िंदगी के लिए भी तो माँगनी है।"

अमन कुछ नहीं बोला। बस एक हल्की नजर नायरा पर डाली और आगे बढ़ गया।

नायरा ने चुपचाप अपना सिर ढँका और पीछे-पीछे चल दी।

कार के अंदर सन्नाटा था।
खिड़की से आती हवा नायरा की चुन्नी से खेल रही थी और अमन सामने देखकर यूँ बैठा था जैसे वो वहाँ है ही नहीं।

कुछ मिनट बाद नायरा ने धीमी आवाज़ में कहा—

"आपको दरगाह नहीं जाना था… फिर भी चले आए…"

अमन ने बिना उसकी ओर देखे कहा,
"मैं दादी की बात नहीं टालता।"

नायरा चुप हो गई।
कुछ सेकंड बाद उसने हौले से कहा,
"अच्छा किया… अल्लाह के दर पे जाया जाए तो कभी खाली नहीं लौटा करते…"

अमन की निगाह अब भी सामने थी, मगर एक पल को उसकी उंगलियाँ टाइट हो गईं… जैसे कोई बीते वक़्त की गिरह सीने में कस गई हो।

नायरा अब उसे सिर्फ देख रही थी…
बिना सवाल किए, बस उसके सन्नाटे में अपने सब्र की चुप्पी बुन रही थी।

सुल्तान मेंशन से कुछ दूर शहर के पुराने हिस्से में वो दरगाह थी…
सफेद संगमरमर की दीवारों से ढकी, हर कोना सुकून से लिपटा हुआ।

फिज़ा में रूहानी खुशबू घुली थी।
क़व्वाल की आवाज़ जैसे सीधा दिल में उतर रही थी—
"मन कुतुब का मेला है, दिल पे जिसकी रहमत का पहरा है…"

दरगाह की सीढ़ियों पर सुल्तान मेंशन का पूरा क़ाफिला था,
मगर दो ही चेहरे ऐसे थे जो नज़रों में नहीं थे—अमन और नायरा।

नायरा ने गुलाबी दुपट्टा सिर पर ठीक किया,
और बाएं हाथ में फूलों और चादर से भरी टोकरी संभालते हुए
धीरे-धीरे अमन के पीछे चल दी।
अमन ने एक बार भी पीछे नहीं देखा।
जैसे हर रिश्ता उसके लिए एक ज़रूरी फ़र्ज़ हो, कोई ताजगी नहीं।

नायरा उसकी चाल के साथ-साथ खुद को संभाल रही थी।
लोगों की भीड़ के बीच वो बस एक-दूजे की परछाईं से बंधे चल रहे थे।

अंदर दाख़िल हुए…

गुंबद के नीचे की रौशनी, गुलाब की खुशबू और मत्था टेकते लोगों की फुसफुसाहटों में
नायरा ने पहली बार इतनी भीड़ में खुद को अकेला महसूस नहीं किया…
क्योंकि उसके बगल में वो था—चुप, मगर मौजूद।

दादी जान ने कहा, "तुम दोनों ने मिलकर एक साथ मजार पर चादर चढ़ानी है।"
नायरा ने चुपचाप अमन की ओर देखा…
और अमन ने पहली बार नज़रों से पूछा—“क्या तुम तैयार हो?”
नायरा ने हल्के से सिर झुका लिया।

दोनों ने एक साथ चादर दरगाह पर चढ़ाई।
नायरा ने आँखें मूँद लीं और मन ही मन कहने लगी—

"मुझे उसका दिल नहीं चाहिए, बस उसकी तसल्ली बनना है…
उसकी चुप्पियों में एक ऐसा नाम होना है, जो उसे तोड़ने के बजाय जोड़ दे।"

जब उसने आँखें खोली, अमन कुछ दूर खड़ा था…
एकटक उसे देखता हुआ।

उनकी नज़रें मिलीं—बिना कोई मुस्कान, बिना कोई शिकवा।
सिर्फ एक अनकहा समझौता…
कि इस रिश्ते में आवाज़ें भले कम हों, लेकिन एहसास बहुत होंगे।

हॉल में सबका जमावड़ा था।

दरगाह से लौटने के बाद सुल्तान मेंशन के बड़े हॉल में चाय-नाश्ते का सिलसिला चल रहा था। माहौल में रौनक थी, मगर ज़रा सी खामोशी भी, जैसे सब कुछ होते हुए भी कुछ अधूरा सा था।

रूबी अपनी हमेशा की चुलबुली अदाओं में नायरा के पास आई और आंख मारते हुए बोली,
"भाभी... सच-सच बताइए, दरगाह में दुआ में क्या माँगा? हमारे अमन भाई की मोहब्बत... या फिर उनकी लंबी उम्र?"

नायरा शरमा कर नज़रें झुका गई। होंठों पर एक हल्की मुस्कान आकर ठहर गई। उसने कुछ कहने की कोशिश की, मगर बोल न सकी।

उसी वक़्त पास बैठी निखार की आवाज़ तीर सी चुभी—
"अरे रूबी, तुम भी ना! दुआ माँगने से क्या होता है? मोहब्बत तो जब होती है तब नज़र आती है... और यहां तो—मियाँ बीवी एक साथ बैठे भी नहीं जाते!"

कुछ देर को सन्नाटा खिंच गया।

नायरा की मुस्कान ज़रा सी कांपी... चेहरा फीका पड़ा, मगर उसने खुद को सँभाल लिया।
रुकसाना बेगम ने वहीं बैठी-बैठी निखार के हाथ पर दबाव देते हुए फुसफुसाया—
"बस करो अब... हर बात पर ज़हर उगलना अच्छी बात नहीं होती।"

मगर निखार ने बगलें झाँकी, जैसे उसकी बातों में कोई बुराई ही न हो।

अमन वहीं खड़ा था, दीवार से टेक लगाए, सब सुन रहा था। उसका चेहरा हमेशा की तरह बेअसर था, मगर उसकी आँखें गहरी और तल्ख़ थीं। वो बिना कुछ कहे पलटा और भारी कदमों से वहाँ से निकल गया।

दादी जान, जो अब तक सबकुछ गौर से देख रही थीं, नायरा की तरफ देख कर हल्के से मुस्कराईं और आँखों से उसे तसल्ली दी।
फिर उनकी आवाज़ उठी,
"निखार! जुबान पे लगाम लगाना सीखो। सुल्तान मेंशन में कोई किसी मेहमान पर तंज नहीं करता, और न ही अपनी भाभी पर!"

निखार की गर्दन झुकी, मगर आँखों में अब भी वही चिंगारी थी।

दादी ने नायरा का हाथ थामा, और धीमे से कहा—
"तुम दिल की साफ़ हो बेटी... बस सब्र रखना। वक्त सब बदल देता है, और मोहब्बत तो सबर से ही परवान चढ़ती है।"

नायरा ने उनकी बातों में सुकून ढूँढा। उस सुल्तान मेंशन के शाही हॉल में, तंज़, मज़ाक, मोहब्बत और खामोशियों के बीच... एक नई कहानी ने चुपचाप करवट ली।