Teri Meri Khamoshiyan - 7 in Hindi Love Stories by Mystic Quill books and stories PDF | तेरी मेरी खामोशियां। - 7

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तेरी मेरी खामोशियां। - 7

दोपहर ढल चुकी थी।

कॉलेज से लौटते हुए नायरा की चाल कुछ और धीमी थी आज। दिल में उलझन थी… और निगाहें हर मोड़ पर कुछ ढूंढती-सी।

बस स्टॉप आज भी वैसा ही था,
पर उस रोज़ की तरह हवा नहीं चली,
ना ही दुपट्टा किसी की तरफ उड़ा,
और ना ही वो आँखें…
जिन्हें देखे हुए अब दो दिन बीत चुके थे।

अमन…
आज नहीं आया था।

नायरा की आँखें एक बार फिर उसी कोने को देखने लगीं, जहाँ उस रोज़ उसकी नज़रें ठहरी थीं।
पर आज उस कोने में सिर्फ़ सूनापन था।

वो चुपचाप बस में चढ़ गई।
भीड़ थी, शोर था, पर उसका मन हर आवाज़ से कटा-कटा सा था।

घर पहुँची तो आज भी वही सन्नाटा था।
अब्बू और दादी बुआ शायद अब उम्मीदें कम कर चुके थे।
पर नायरा जानती थी… उनके चुप रहने में भी एक शिकवा है।

वो सीधा अपने कमरे में गई।
दरवाज़ा बंद किया, और थककर बिस्तर पर गिर पड़ी।

पलंग के सिरहाने अब भी वो बंद लिफ़ाफ़ा रखा था,
जिसमें वो तस्वीर थी…
जिसे देखना उसने अब तक मुनासिब नहीं समझा।

थोड़ी देर वो उसे बस देखती रही…
पर फिर उसने मुड़कर दूसरी तरफ मुँह कर लिया।

"अगर वो मेरी किस्मत है…
तो फिर मेरी ख़ामोशी भी उसे समझ लेगी।"
उसने खुद से फुसफुसाते हुए आँखें बंद कर लीं।

सुबह…

सुबह का उजाला धीरे-धीरे कमरे की दीवारों पर उतर रहा था।
कभी सुनहरी किरणें खिड़की से झाँकतीं, तो कभी हल्की हवा पर्दों को सरसराती हुई नायरा के चेहरे तक पहुँचती।
पर उसकी आँखें अब भी बंद थीं, शायद नींद में नहीं… सोच में डूबी हुई थीं।

दरवाज़ा बहुत धीमे से खुला।
अम्मी…

सधे हुए क़दमों से उसके पास आकर बैठीं।
उनके हाथ में एक ट्रे थी, जिसमें हल्का गरम दूध, बादाम, और वही तस्वीर वाला लिफ़ाफ़ा था…
जो बीते दो दिन से बस उसकी नज़र से बचता फिर रहा था।

अम्मी ने ट्रे रख दी,
नायरा का माथा सहलाया, जैसे कोई रूह बिना आहट के ममता बरसा रही हो।

"बेटा…"
उनकी आवाज़ रेशमी थी, मगर भीगी हुई।

"जानती हूँ, तुझ पर बहुत कुछ थोप दिया गया… पर तू मेरी अपनी है।
इसलिए नहीं चाहती कि तू भी उसी अकेलेपन में उलझ जाए… जैसे तेरी अम्मी चली गई थी, तुझे छोड़कर।"

नायरा की पलकों ने थरथराहट से जवाब दिया…
उसने करवट ली, पर कुछ कहा नहीं।

"मैं तुझसे सौतेली हो सकती हूँ नायरा…
मगर तेरे लिए जो महसूस करती हूँ, उसमें कोई सौतेलापन नहीं है।
एक बार बस इस तस्वीर को देख ले…
फैसला तेरा है, ज़िंदगी भी तेरी है।
मैं तो बस चाहती हूँ कि तू जो भी चुने, सुकून से चुने… मजबूरी से नहीं।"

अम्मी उठीं।
उसके माथे को बहुत प्यार से चूमा और ट्रे के पास वो लिफ़ाफ़ा रखकर बाहर चली गईं।

नायरा ने करवट बदलकर वो दरवाज़ा देखा,
जिससे अम्मी निकली थीं…

कुछ रिश्ते खून से नहीं, ख़ामोशी से गहरे होते हैं।

वो उठी, ट्रे की ओर देखा…
एक पल को लिफ़ाफ़े की तरफ़ हाथ बढ़ाया…
मगर फिर रुक गई।

उसने खिड़की की ओर देखा,
जहाँ से रौशनी अब उसके चेहरे पर पूरी तरह उतर चुकी थी।

उसने कॉलेज जाते वक़्त वो लिफाफा अपने बेग में रख लिया था।
मन में एक उथल-पुथल सी चल रही थी, कुछ समझ नहीं आ रहा था—देखे या ना देखे, सोचे या अनदेखा कर दे सब कुछ…

आज लाइब्रेरी जाना था। वही शांति, वही पुरानी किताबों की खुशबू और वही पुराना कोना…
मगर आज का दिन कुछ अलग था।

क्योंकि आज फिर अमन से मुलाकात हुई… मगर इस बार वो अकेला नहीं था।

वो किसी लड़की के साथ था—लड़की उसकी क्लासमेट रही होगी शायद…
हँसते हुए कुछ कह रही थी, और अमन… हमेशा की तरह चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था।
सिर्फ गर्दन हिलाकर जवाब दे रहा था, उसकी आँखें अब भी वैसी ही थीं—गहरी, रहस्यमयी, मगर आज वो किसी और की तरफ झुकी थीं।

नायरा की चाल थोड़ी थम गई।
उसने दूर से देखा और नज़रें फेर लीं, मगर मन ने नहीं फेरा।
दिल ने चुपके से हल्की सी चिंगारी महसूस की।

"तो यही है उसकी पसंद?"
उसने खुद से सवाल किया, और फिर अपने ही जवाब से चिढ़ गई।

"मुझे क्या फर्क पड़ना चाहिए?
ना मैं उसे जानती हूँ…
ना वो मुझे…
फिर भी ये अजीब सी कसक क्यों उठी है?"

वो लाइब्रेरी की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बुदबुदाई,
"खामोश रहकर भी बहुत कुछ कह जाता है वो…
शायद इसलिए मैं हर बार… खुद को वहीँ महसूस करती हूँ जहाँ वो होता है…"

वो अंदर पहुँची और उसी कोने में बैठ गई जहाँ से उसका चेहरा नहीं, मगर उसकी परछाईं दिख जाए।
किताब खोली, पन्ना पलटा… मगर पंक्तियाँ धुंधली थीं।

उसका मन बेमन से सोच रहा था—

"अगर वो उसी लड़के का नाम निकला…
जिसका रिश्ता घर से आया है…
तो…?"

फिर खुद को झटका देते हुए बोली,
"पागल हो गई हूँ क्या मैं?"

नायरा किताब के पन्ने पलट रही थी, मगर दिमाग़ में बस एक ही चेहरा घूम रहा था—अमन का।
कभी उस लड़की की मुस्कुराहट याद आती, कभी अमन की खामोशी।

तभी एक किताब टेबल पर आ गिरी, और नायरा चौंकी।
आवाज़ की तरफ देखा… 

"ओ नायरा बी, क्या किताब में लिखी इश्क़ की कहानियाँ अब असल ज़िंदगी में उतरने लगी हैं?" वो निम्मी थी, मगर अमन जा चुका था… और साथ में वो लड़की भी।

नायरा चौंकी, मुस्कराने की कोशिश की मगर मन उदास था।
"कुछ नहीं यार, बस ऐसे ही… पढ़ाई में मन नहीं लग रहा।"

निम्मी ने कुर्सी खींचकर उसके पास बैठते हुए आँखें तरेरी,
"हाँ हाँ, सब समझ रही हूँ मैं… जब से वो बुक वाला बाबू तेरा दिल ले गया है ना, तब से तू इधर है मगर मन उधर है!"

नायरा ने हल्का सा तकिया उठाकर उसे मारते हुए कहा,
"बकवास मत कर निम्मो… मैं उसे जानती भी नहीं।"

निम्मी ने मुस्कुरा कर कान के पास फुसफुसाया,
"दिल वाले जानने से नहीं, धड़कने से पहचाने जाते हैं।"

नायरा ने हँसते हुए कहा,
"तू ना, शायर बनने के चक्कर में पागल हो गई है!"

निम्मी थोड़ी देर बाद गंभीर हो गई,
"वैसे बात तो तूने बताई नहीं… जो रिश्ता आया है घर से, उसका नाम क्या है? कैसा है लड़का?"

नायरा ने लंबी साँस ली,
"नाम नहीं पता, फोटो भी नहीं देखा अब तक। बस लिफाफा रखा है… दिल नहीं हो रहा देखने का।"

निम्मी ने थोड़ा सोचते हुए कहा,
"तू डरती क्यों है? हो सकता है, वो अच्छा हो… और तेरी पढ़ाई भी ना रुके। मिल ले एक बार, जान ले उसे। फिर फैसला कर।"

नायरा ने उसकी ओर देखा,
"अगर दिल से रिश्ता नहीं जुड़ पाया तो… क्या फिर भी रिश्ता निभाया जा सकता है?"

निम्मी ने नज़रों में चमक के साथ जवाब दिया,
"दिल से रिश्ता तभी जुड़ता है जब तुम उसे मौका दो… शायद वही तेरा जवाब लेकर तेरे सामने खड़ा हो… और तुझे पता भी ना चले!"

नायरा चुप हो गई। वो मुस्कराई, मगर उसकी मुस्कराहट में कई सवाल छुपे थे।