जीवन भी एक भूल भुलैया है – यह कहावत केवल एक कथन नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति का अनुभव है जिसने जीवन की राहों पर चलने की कोशिश की है। इस भूल भुलैया में कभी रास्ते सीधे दिखते हैं, लेकिन अंततः वे मोड़ ले लेते हैं; कभी लोग अपने बनते हैं, पर बाद में पराए हो जाते हैं। और कभी हम खुद को ही खो बैठते हैं।
यह कहानी है अभिनव नामक एक युवक की, जो जीवन की इस भूल भुलैया में भटकता है, रास्ते तलाशता है, और अंततः खुद को खोज लेता है।
अभिनव एक छोटे से शहर का होनहार विद्यार्थी था। पढ़ाई में तेज, संस्कारी, और महत्वाकांक्षी। उसके माता-पिता को उस पर गर्व था। उसका सपना था कि वह एक बड़ा अफसर बने, खूब पैसा कमाए और अपने परिवार को हर सुख-सुविधा दे।
कॉलेज में दाखिला मिला – दिल्ली का प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय। यह अभिनव के लिए पहला बड़ा मोड़ था। गाँव की सादगी से निकलकर महानगर की चकाचौंध उसे अजीब-सी लग रही थी, लेकिन वह उत्साहित था।
कॉलेज के पहले वर्ष में सब कुछ नया था – नए दोस्त, नया माहौल, नई आज़ादी। धीरे-धीरे अभिनव पढ़ाई से ज़्यादा दोस्तों के साथ पार्टियों और घूमने-फिरने में रम गया। वह सोचता, "ज़िंदगी तो एक ही बार मिलती है, जी भरकर जी लो।"
धीरे-धीरे किताबों से दूरी बढ़ती गई और मोबाइल, सोशल मीडिया, और दोस्तों के चंगुल में वह फँसता गया। रिजल्ट आया – फेल। यह उसके जीवन का पहला झटका था। माता-पिता नाराज़ हुए, पर उसे एक और मौका दिया।
अभिनव ने तय किया कि अब वह सुधरेगा। लेकिन भीतर की उलझनें बढ़ चुकी थीं। वह खुद को समझ नहीं पा रहा था। एक तरफ वह अपने सपनों का पीछा करना चाहता था, दूसरी ओर उसके भीतर एक अजीब-सी बेचैनी थी। क्या वह वही चाहता था जो बचपन से उसे बताया गया था?
उसे लगता, ज़िंदगी किसी भूल भुलैया की तरह है – हर मोड़ पर नया द्वार, नया भ्रम। वह फिर से भटकने लगा – इस बार अकेलेपन की ओर। दोस्तों से दूरी, घर से शर्म, और मन में निराशा।
एक दिन वह पार्क में बैठा था, जब एक वृद्ध व्यक्ति पास आकर बैठा। वे साधारण वेशभूषा में थे, पर आँखों में गहराई थी। उन्होंने पूछा, "बेटा, खो गए हो क्या?"
अभिनव ने सिर झुका लिया। उस वृद्ध ने मुस्कराते हुए कहा, "जीवन एक भूल भुलैया है, बेटा। रास्ते वही पाते हैं जो चलते रहते हैं। जो रुक जाते हैं, वे दीवारों से टकराते हैं।"
यह बात उसे भीतर तक छू गई।
उस रात अभिनव ने देर तक सोचा। वह अपने जीवन के रास्तों को फिर से टटोलने लगा। वह समझ गया कि अब समय आ गया है खुद को फिर से गढ़ने का। उसने तय किया कि वह न केवल पढ़ाई करेगा, बल्कि खुद को भी समझेगा।
उसने मेडिटेशन शुरू किया, किताबें पढ़ीं – न केवल अकादमिक, बल्कि जीवन के बारे में। उसने कॉलेज के पुराने प्रोफेसर से संपर्क किया और गाइडेंस ली।
धीरे-धीरे उसका आत्मविश्वास लौटने लगा। परीक्षा दी – पास हुआ, और अच्छे अंकों से।
इसी दौरान उसकी मुलाकात काव्या से हुई – एक समझदार, भावुक और आत्मनिर्भर लड़की। दोनों के विचार मिलते थे। बातों का सिलसिला बढ़ा और धीरे-धीरे वे एक-दूसरे के करीब आ गए।
लेकिन जीवन की भूल भुलैया में यह एक और गलियारा था – जहाँ मोह और वियोग साथ चलते हैं।
काव्या का परिवार उसे किसी और के साथ बाँधना चाहता था। उसने अभिनव से कहा, "मैं तुम्हें नहीं छोड़ना चाहती, लेकिन मुझे समझ नहीं आता कि इस रिश्ते को कैसे बचाएँ।"
अभिनव ने सोचा, "क्या फिर से मैं उसी भ्रम में पड़ रहा हूँ जहाँ रास्ता नहीं, सिर्फ दीवारें हैं?" उसने निर्णय लिया कि वह अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहेगा। वह काव्या को जाने देता है – भारी मन से, लेकिन समझदारी से।
समय बीता। अभिनव ने खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया। उसने प्रतियोगी परीक्षा दी – उत्तीर्ण हुआ। एक प्रतिष्ठित सरकारी पद मिला। माता-पिता गर्व से भर गए।
वह जानता था कि यह सफलता केवल किताबों की नहीं, अनुभवों की थी – वह सबक जो उसे भटकावों, रिश्तों, भ्रमों और आत्मचिंतन से मिले थे।
एक शाम, जब वह अपने ऑफिस से लौट रहा था, उसी पार्क के पास से गुज़रा जहाँ कभी वह वृद्ध से मिला था। अनायास ही उसके कदम वहीं मुड़ गए।
वह वृद्ध फिर से वहीं बैठे थे, जैसे समय ठहर गया हो। अभिनव ने उनके पैर छुए और कहा, “आपकी बात ने मुझे जीवन की सबसे बड़ी सीख दी – चलते रहो।”
वृद्ध ने मुस्कराकर कहा, "भूल भुलैया से निकलने का रास्ता कोई और नहीं बताता, बेटा। वह तुम्हें खुद ही खोजना होता है। तुमने खोजा, यही तुम्हारी जीत है।"
अभिनव की यह यात्रा एक प्रतीक है – हम सबके जीवन की। जीवन में हम सब कभी न कभी, कहीं न कहीं भटकते हैं। कुछ रिश्तों में, कुछ सपनों में, कुछ भ्रमों में।
पर याद रखना चाहिए – जीवन भी एक भूल भुलैया है, और इससे निकलने का एक ही उपाय है – चलते रहो, समझते रहो, और खुद को खोने नहीं दो।