Unseen angel in Hindi Motivational Stories by Dayanand Jadhav books and stories PDF | अनदेखा फरिश्ता

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अनदेखा फरिश्ता

शहर की भीड़-भाड़ से दूर, एक छोटा-सा कस्बा था—राजपुर। वहाँ लोगसाधारण जीवन जीते थे, लेकिन कुछ लोग अपने साधारण जीवन में असाधारण कर्म करकेदूसरों की ज़िंदगी बदल रहे थे। ऐसा ही एक व्यक्ति था—रामू काका।

रामू काका कोई अमीर आदमी नहीं थे। उम्र करीब साठ के पार, बदन झुकाहुआ, माथे पर झुर्रियाँ, और कपड़े हमेशा साधारण। वे नगर पालिका में सफाई कर्मचारीथे। सुबह सबसे पहले उठते और गलियों की सफाई करके दिन की शुरुआत करते। ज़्यादातरलोग उन्हें बस एक सफाईकर्मी के तौर पर जानते थे, लेकिन किसी को यह नहीं पता था किवे एक "अनदेखा फरिश्ता" भी थे।

रामू काका को एक आदत थी—हर महीने की तनख्वाह का एक हिस्सा चुपचाप अलगनिकाल कर किसी जरूरतमंद की मदद के लिए रख देना। वे कभी किसी को बताकर मदद नहींकरते थे। कई बार उन्होंने देखा था कि लोग मदद करते हैं तो उसका दिखावा ज्यादा करतेहैं। वे कहते,

“ज़िंदगी में कोई नेक काम करो तो बाएँ हाथ से करो, तो दाएँ हाथ को भी पता न चले।”

उनकी इस सोच के पीछे एक गहरी वजह थी।

करीब बीस साल पहले रामू काका भी एक मध्यम वर्गीय जीवन जीते थे।पत्नी, एक बेटा, और एक छोटी-सी किराने की दुकान। लेकिन एक आग ने सब कुछ जला डाला।दुकान तो खाक हुई ही, उनका बेटा भी उस हादसे में झुलस गया। इलाज में जो कुछ था वोबिक गया। पत्नी की तबीयत भी बिगड़ती चली गई। सरकारी मदद के नाम पर कुछ नहीं मिला,और समाज भी बस "अफसोस" कहकर आगे बढ़ गया।

उसी वक्त एक अनजान आदमी ने मदद की। अस्पताल में बिना नाम बताए पैसेजमा कराए, दवाइयाँ दीं, और हर बार कुछ ऐसा कर गया जो रामू काका की ज़िंदगी कीडूबती नाव को सहारा दे गया। उस शख्स ने कभी अपना नाम नहीं बताया। बस एक चिट्ठीछोड़ी—

“जो मैंने किया, वह मैंने भगवान के नाम पर किया। अगर कभी तुम उठ सको,तो किसी और के लिए वही करना जो मैंने तुम्हारे लिए किया।”

यही चिट्ठी रामू काका की ज़िंदगी का उद्देश्य बन गई।

रामू काका अब रोज़ अपनी झाड़ू के साथ-साथ उम्मीद की किरणें भी बाँटतेथे। वे स्कूल के बाहर खड़े बच्चों में से किसी के फटे जूते देखकर अगली सुबह नएजूते उस बच्चे के बस्ते में रख जाते। कभी किसी बुजुर्ग के इलाज के लिए अस्पताल मेंपैसे जमा कर देते, तो कभी किसी विधवा के घर राशन का थैला टांग देते।

एक बार नगर के एक अध्यापक श्रीकांत जी की पत्नी को कैंसर हुआ। लाखोंका इलाज था, और वे बिलकुल टूट गए थे। मदद के लिए उन्होंने जगह-जगह गुहार लगाई,लेकिन कोई विशेष मदद नहीं मिली। एक सुबह अस्पताल के काउंटर पर एक लिफाफा रखा मिला,जिसमें इलाज के लिए ज़रूरी रकम थी और साथ ही एक चिट्ठी—

“ईश्वर ने चाहा, तो आपकी अर्धांगिनी जल्द स्वस्थ होंगी। नाम जानने कीकोशिश न करें, बस यह याद रखें कि दुनिया में अच्छाई अब भी ज़िंदा है।”

श्रीकांत जी ने बहुत कोशिश की, लेकिन कभी नहीं जान पाए कि मदद किसनेकी।

कस्बे में एक पत्रकार आया था—नील। वह शहर से आया था और छोटे कस्बोंकी 'छुपी कहानियाँ' खोज रहा था। रामू काका की कुछ गतिविधियों की उसे भनक लगी। वहउन पर नजर रखने लगा।

एक दिन, नील ने देखा कि रामू काका आधी रात को एक झुग्गी में घुसे औरवहाँ बीमार महिला के बगल में कुछ दवाइयाँ और पैसे रखकर लौट आए। नील ने अगली सुबहअखबार में एक लेख लिखा—

"रामू काका: राजपुर के अनदेखे देवदूत"

लेख वायरल हो गया। लोग रामू काका को पहचानने लगे, उनके नाम के पोस्टरलगने लगे, माला पहनाई गई, फोटो खिंचवाई गई।

लेकिन रामू काका उदास हो गए।

रामू काका ने उस रात नील को बुलाया और कहा—

"बेटा, तूने मेरी पहचान उजागर कर दी। अब मेरे सारे काम दिखावेमें बदल जाएंगे। जो खुशी मुझे गुमनाम रहकर मिलती थी, वो अब नहीं मिलेगी।"

नील ने शर्मिंदा होकर माफी मांगी और पूछा—"लेकिन काका, क्यों?जब आप इतने नेक काम कर रहे हैं, तो सबको पता होना चाहिए। दूसरों को भी प्रेरणामिलेगी।"

रामू काका मुस्कराए—

"प्रेरणा देने के लिए शोर ज़रूरी नहीं। अच्छाई जब चुपचाप कीजाती है, तब वह सीधी आत्मा को छूती है। मैं कोई हीरो नहीं बनना चाहता, बस किसी कीज़रूरत बनकर रहना चाहता हूँ। और बेटा, नेक काम तब सबसे पवित्र होता है जब करनेवाला उसका श्रेय न ले।"

समय बीतता गया। एक दिन रामू काका की तबीयत बिगड़ गई। उन्हें अस्पतालमें भर्ती कराया गया, और कुछ दिनों बाद उन्होंने संसार को अलविदा कह दिया।

लेकिन उनकी कहानी यहीं खत्म नहीं हुई।

उनके कमरे से एक बक्सा मिला, जिसमें बहुत सारी चिट्ठियाँ थीं—हर उसव्यक्ति की, जिसे उन्होंने गुमनाम मदद की थी। किसी के स्कूल की फीस, किसी की बेटीकी शादी, किसी के इलाज का खर्च… हर चिट्ठी में एक ही बात थी—“आपका आभार, अज्ञातदेवदूत।”

श्रीकांत जी ने वह बक्सा देखा और भावुक हो उठे। उन्होंने तय किया किरामू काका की इस परंपरा को आगे बढ़ाना होगा। अब हर महीने, कुछ लोग गुप्त रूप सेमिलते और तय करते कि किस जरूरतमंद की मदद करनी है—बिना नाम बताए, बिना शोर किए।

राजपुर में आज एक ट्रस्ट चलता है—"बाएँ हाथ का नाम"। इसकाउद्देश्य है गुप्त दान और सहायता। किसी को भी पैसा नहीं दिया जाता, बस ज़रूरत पूरीकर दी जाती है।

और ट्रस्ट की दीवार पर एक पंक्ति लिखी है—

“ज़िंदगी में कोई नेक काम करो तो बाएँ हाथ से करो, ताकि दाएँ हाथ कोभी पता न चले।”