Traas Khanan in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | त्रास खनन - 1

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त्रास खनन - 1

"त्रास खनन" 
ऐसा लगता था जैसे वो अकेला ही नहीं बल्कि उसके साथ कमरे की दीवारें, पर्दे, खिड़कियां और छत भी थरथरा रहे हों। ये तो गनीमत थी कि वह घर में अकेला ही था वरना और जो भी इस समय उसके साथ यहां मौजूद होता वो अकारण ही उसके प्रति किसी शंका से भर जाता। इतने गुस्से में उसे पहले कभी न तो  किसी और ने देखा था और न खुद उसने ही अपने आप को। लगता था मानो अकस्मात कहीं कोई बिजली कड़क कर चुकी हो और उसका अंतर झुलसा गई हो। गला सूख रहा था जैसे प्यास का समूचा रेगिस्तान उसके हलक में आ फंसा हो।वो रो नहीं रहा था पर उसकी आंखों के कोरों पर एक चमकदार नमी ज़रूर थी।रोता क्यों? उस पर किसी दुख का हमला नहीं हुआ था। बल्कि ये आक्रमण तो अपमान का था। आदमी अपमान पर रोता नहीं, लजाता है। गुस्सा उतर जाने के बाद जब अकेले में सोचता है तो उसे मन ही मन एक मीठी सी शर्म आती है।मीठी सी शर्म! ये निर्लज्ज जुमला।देखो तो, किसी बबूल के पेड़ की तरह खामोशी से उसके सहन में उग आया ये जुमला। और आज उसके सीने पर किसी खंजर की तरह नश्तर चुभो गया। काश इसे उसी क्षण मसल कर उखाड़ फेंका होता जब ये पहले पहल दिखाई दिया था। लेकिन तब उसे ये कहां मालूम था कि जिस अंकुर को वो सहला रहा है वो एक दिन खौफ़नाक कैक्टस बन कर खड़ा हो जाएगा। तब तो सचमुच मिट्टी में हुई गुदगुदी सा अंकुआया था ये।उसे खूब याद है। होगी लगभग दस साल पुरानी बात।उन दिनों वो नया- नया उजड़ा था। धूल सने लम्हे रात- दिन झेलता हुआ।उसकी हंसती- खेलती ज़िंदगी देखते- देखते वीरान हो गई थी। बेटी की तभी शादी हुई थी। बेटा विदेश में पढ़ाई करने का सपना लेकर परदेस चला गया था और पत्नी को अल्पायु में ही दिल का ऐसा दौरा पड़ा कि दुनिया से रुखसत होने की नौबत आ गई। ये सब- कुछ चंद महीनों के फासले पर हुआ। उसकी नौकरी करने तक की इच्छा मर गई जबकि सेवा निवृत्त होने में अभी अच्छा खासा टाइम बाकी था। बड़ा पद और मोटी तनख्वाह भी उसे बांध न सकी। जी में वीरानी उग आए तो कोई पैसे का भी करे क्या?उन दिनों घर में अपने कमरे में अकेले बंद रहना ही उसे भाता था। सुबह होती, दोपहर होती, शाम होती और रात आ जाती। फ़िर वो किसी अनजाने खौफ़नाक जंगल में चला जाता। न जाने कैसे ढूंढ - खोज कर अगली सुबह का सूरज उसे फ़िर निकाल लाता और वह दैनिक क्रिया - कलाप में उलझ जाता।लेकिन ऐसा भी आख़िर कब तक चलता। इंसान के पास जब तक शरीर हो तब तक साथ में इंद्रियां भी तो होती हैं न। वो गुज़र रहे पलों को खुरचती हैं, कुरेदती हैं और तब इंसान वो भी हो जाता है जो वो नहीं हो।इसी तरह उसे बैठे- बैठे कंप्यूटर, लैपटॉप और फ़िर मोबाइल से सारा दिन खेलने का चस्का लग गया। वो इस रपटीली फिसलन पर ऐसा मज़ा लेने लगा जैसे लोग बर्फ़ की परतों पर फिसलने का लेते हैं।अंगुलियों की हल्की सी जुंबिश से दुनिया का कोई भी द्वार खोल लो और किसी विचित्र कक्ष में बेख़ौफ़ घुस जाओ। न किसी और की ज़रूरत और न किसी की कोई दख़लंदाज़ी।ऐसे में ही एक दिन न जाने कहां से एक किशोर का छोटा सा संदेश आया और उससे बात होने लगी। उसे बस ये अच्छा लगा कि किशोर जिस छोटे शहर में रहता है, कभी वर्षों पहले उसे भी उस गांव- नुमा कस्बे में रहने का मौका मिला था।सुबह जैसे ही फ़ोन हाथ में उठाता, वहां पहले से ही उसका संदेश हाज़िर होता - उठ गए अंकल? सुप्रभात!और बस दिन शुरू हो जाता।चाय पी ली? नाश्ता कर लिया? आज कहीं जाओगे या घर पर ही हो? नहा लिए क्या आप? जैसे अंकल की हर बात से उसे मतलब हो। लगभग हर घंटे आधे घंटे बाद वह पूछता रहता। उसे भी वीरान हुई ज़िंदगी में जैसे कोई नया काम मिल गया। जो पूछा जाता, वो जवाब देता जाता।दिन गुजरने लगे। सप्ताह और महीने भी।ज़िंदगी में पहले कमाए दुःख- सुख जैसे कहीं बिसरा गए। ये नई दुनिया, नया काम! ये छोटा सा अजनबी दोस्त जो पूछे वो बताते जाओ। यही दिनचर्या हो गई।