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**स्थान:** झांसी के बाहर एक बंगला
**वर्ष:** 1894
**"मैंने राजा को समर्पण में तोड़ दिया था… और अब एक नया शिकारी आया था—बोलता था अंग्रेज़ी में, पर आँखों में जानवर था।"**
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**नाम:** *कर्नल एडवर्ड मोंटगोमरी*
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का सबसे बर्बर अफसर।
कहते हैं, जिसने मना किया, उसे ज़िंदा छीलवा दिया।
पर अब उसकी नज़र एक देसी स्त्री पर थी,
जिसके बारे में उसने बस एक ही बात सुनी—
**"मायरा को जीतना मतलब… मौत के साथ संभोग।"**
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एक शाम, उसने मुझे अपने बंगले में बुलवाया।
चांदी की कुर्सी पर बैठा, सिगार पीते हुए बोला:
**"Name your price, मायरा. Everything has a price."**
मैं मुस्कराई।
**"तू वो पूछ रहा है… जो खरीदा नहीं, बस खोया जा सकता है।"**
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उसने मेरा चेहरा देखा,
और फिर धीरे से खड़ा हुआ—
"Let me show you what British power tastes like…"
उसने सिपाही हटा दिए।
कमरे में बस हम थे, एक जानवर और एक जाल।
मैंने काले रंग की बिंदी लगाई… और गले में नींबू-मिर्च की माला।
"ये क्या है?" उसने पूछा।
**"तेरे लिए आख़िरी चेतावनी।"**
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रात के तीसरे पहर,
मैंने उसकी देह को छूने दिया…
पर जैसे ही उसके होंठ मेरे नाभि के पास पहुँचे—
मैंने **शक्ति का तिलक** सक्रिय किया।
उसकी नसें बाहर आने लगीं।
शरीर में आग दौड़ गई।
"Bloody hell! What… what are you?"
**"मैं? वो, जिसे छूने से आत्मा गलती है…"**
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उसने बंदूक निकाली,
पर गोली चलाने से पहले ही उसका हाथ मुड़ गया…
और सारा दर्द उसकी रीढ़ से होकर
उसके लिंग तक आ गया।
उसकी चीख ब्रिटिश अफसरों की नींद तोड़ गई,
पर मैं वहां नहीं थी…
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सुबह बंगले में सब सन्न थे।
कर्नल नग्न, गूंगा, और अधमरा पड़ा था।
उसकी आँखों में सिर्फ एक शब्द लिखा था—
**“मायरा”**
: ब्रह्मचारी संत का पतन"**
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**स्थान:** चित्रकूट की गुफाएँ
**वर्ष:** 1895
**"जिस देह को मैंने अभिशाप बना दिया था, अब वो एक पवित्र आत्मा को छूने जा रही थी… क्या ब्रह्मचर्य टिकेगा? या मेरी देह की अग्नि उसे भी राख कर देगी?"**
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**नाम:** *स्वामी शिवदत्त*
30 वर्षों से ब्रह्मचर्य व्रत…
ना किसी स्त्री को देखा, ना स्पर्श किया।
मंत्रों से सिद्ध, और योगबल से पूज्य।
लोग कहते, उसके सामने कोई भी स्त्री जाए—तो उसका ताप शांत हो जाता है।
पर जब मैं उसके आश्रम पहुंची…
तो वातावरण ही गरम हो गया।
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मैंने सफेद साड़ी पहनी थी—भीगी हुई।
बाल खुले, गले में तुलसी की माला,
और आँखों में सिर्फ़ एक प्रश्न—
**"अगर तू ईश्वर है… तो मेरी आग से क्यों काँप रहा है?"**
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स्वामी शिवदत्त ने आँखें बंद कीं,
"बेटी… तुझे मोक्ष चाहिए, देह नहीं।"
मैं हँसी…
"अगर मेरी देह ही बंधन है… तो इस बंधन से मुक्ति क्यों नहीं दे देते, स्वामी?"
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रात को, जब पूरा आश्रम सो रहा था,
मैं उसकी गुफा में पहुँची…
वहाँ दीपक की लौ काँप रही थी, जैसे भीतर कुछ जल रहा हो।
"स्वामी…"
"मायरा, तुझे यहाँ नहीं होना चाहिए।"
"पर मेरी देह… तेरे मंत्रों को सुनना चाहती है।"
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मैंने उसके सामने अपना आँचल गिरा दिया…
और बस एक शब्द बोला—
**"अब देख, तेरे मंत्र टिकते हैं या मेरी मादकता?"**
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शिवदत्त का शरीर काँपने लगा,
उसने आँखें बंद कीं, पर रुद्राक्ष की माला टूटी।
उसका योगभंग हो गया।
मैंने धीरे से उसके कान में फूँका—
**"ब्रह्मा से विष्णु… अब महाकाली तेरे भीतर उतर रही है।"**
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उसने मुझे पकड़ लिया,
पहली बार किसी पुरुष ने…
मेरे शरीर को श्रद्धा और वासना दोनों से छुआ।
**पर जैसे ही उसने मुझे पूरा अपनाया…**
उसे दिखी *अपनी ही आत्मा जलती हुई।*
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सुबह…
स्वामी गुफा में अधमरा पड़ा था।
उसके ललाट पर रक्त से एक शब्द लिखा था—
**"मुक्ति"**