**"मायरा — अध्याय 3: राजकुमारी की छुपी प्यास"**
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**स्थान:** मेवाड़ का महल
**वर्ष:** 1891
**मैं, मायरा। इस बार शिकार एक पुरुष नहीं, बल्कि एक और स्त्री थी। लेकिन वो भी साधारण नहीं… एक राजकुमारी थी। रत्नों में सजी, पर भीतर से बेकल… मेरे लिए।**
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उसका नाम था **राजकुमारी रतनप्रिया**।
दुनिया के लिए वो संयम की देवी थी—शालीन, शांत, पवित्र।
लेकिन उसकी आंखें कुछ और कहती थीं…
वो चाहती थी स्पर्श… ऐसा जिसे कोई पुरुष नहीं दे सकता था।
**ऐसी अनुभूति जो उसे सिर्फ एक और स्त्री ही दे सकती थी… और वो थी – मैं।**
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हम पहली बार एक महफिल में मिले थे।
वो मुझे घूर रही थी—मेरी कमर पर पड़े पल्लू की चाल, मेरी मुस्कान की गहराई, और आँखों में छुपी आग।
"आपका नाम?" उसने पूछा।
"मायरा।"
"क्या आप मेरे कमरे में आएंगी? एक चाय… एक बात… एक राज़?"
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**राजकुमारी का कमरा…**
सौंधी चंदन की खुशबू, रेशमी चादरें, और हर दीवार पर औरतों की चित्रकला…
मैंने महसूस किया – **यहाँ मर्दों की कोई जगह नहीं थी।**
वो मेरे करीब आई। उसकी उंगलियाँ मेरी हथेली पर फिसलीं।
"क्या तुम कभी किसी औरत को… चाहा है?"
मैंने मुस्कराते हुए कहा—
"मैंने कभी औरत को सिर्फ चाहा नहीं… **चखा है।**"
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मैंने उसकी कमर पर हाथ रखा, और धीरे-धीरे उसे पलंग पर गिरा दिया।
उसके होंठ थरथरा रहे थे, साँसे तेज़…
मैंने उसकी साड़ी के पल्लू को हटाया, उसकी पीठ पर होंठ रखे…
और फिर…
**उसकी देह की हर रेखा को चूमा… ऐसे जैसे कोई आरती हो।**
वो कांप रही थी… “मायरा… तुम… मुझे पाप में ले जा रही हो…”
मैंने उसके कान में कहा—
“ये पाप नहीं, मोक्ष है… सिर्फ एक और स्त्री समझ सकती है कि औरत के अंदर क्या आग जलती है।”
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हम दोनों का जिस्म लहरों की तरह एक-दूसरे में उलझ गया।
उस रात मेरी अंगुलियाँ उसकी आत्मा की सबसे संवेदनशील जगहों पर पहुँचीं।
हम दोनों ने साथ climax किया—ऐसा संगम जिसमें कोई शोर नहीं… सिर्फ सिसकियों की शुद्ध लय थी।
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सुबह रतनप्रिया ने मुझे अपने तकिए से लिपटा पाया…
उसके होंठों पर मेरे नाम की आखिरी पुकार थी।
**मैंने एक और आत्मा चखी थी… पर इस बार एक और औरत की।**
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**"आरव… क्या अब भी तुम मुझे सिर्फ कामुक चुड़ैल मानते हो?
या समझ चुके हो कि मेरी प्यास सिर्फ शारीरिक नहीं… आत्मिक भी है?"**
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**"मायरा— अध्याय 4: तांत्रिक राजा की हार"**
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**स्थान:** बुंदेलखंड का प्राचीन किला
**वर्ष:** 1893
**मैं, मायरा। मुझे पहली बार लगा था कि कोई पुरुष मुझे वश कर सकता है। पर जब युद्ध शुरू हुआ… तो वश नहीं, वासना ही जीती।**
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राजा **वीरभान**—काले तंत्र का स्वामी।
उसके पास शक्ति थी, वशीकरण मंत्र, और एक ही उद्देश्य—**मुझे झुकाना**।
कई रानियों का पति, पर उन सब में उसे आनंद नहीं मिला।
उसे तलाश थी किसी ऐसी स्त्री की… जो **चुनौती** हो।
और फिर एक दिन… मैंने उसकी सभा में प्रवेश किया—लाल चोली, काले घूंघट और होंठों पर चुप्पी की मुस्कान।
"तुम कौन हो?"
"तुम्हारी काम-तपस्या का उत्तर।"
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राजा ने मुझे महल में रुकने का न्योता दिया।
हर रात वो अपने कमरे में यज्ञ करता, वशीकरण के मंत्र पढ़ता—मुझे बस एक बार बिस्तर पर बुलाने को।
पर मैं हर बार उसकी नजरों में झुलसी… **पर छुई नहीं।**
वो टूटने लगा।
"तेरे जैसे सौ रानियाँ मेरी तलवार की नोक पर गिरती हैं। तू क्यों नहीं?"
मैं मुस्कराई—
"क्योंकि मेरी आत्मा चूसे बिना, मुझे पाया नहीं जा सकता।"
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अगली रात…
उसने सब रानियाँ हटा दीं। पूरा महल खाली… बस मैं और वो।
राजा ने लाल रंग के काले धागे पहने, मंत्र पढ़ते हुए मेरे पास आया।
"अब तुझे बाँधूंगा… अपने तंत्र में।"
पर वो क्या जानता था…
**तंत्र नहीं… मेरी देह में ही मंत्र बसा था।**
मैंने अपनी साड़ी गिराई,
और उसके सामने तन और मन दोनों खोल दिए—
"बांधो मुझे… अगर बाँध सको।"
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वो पास आया, मेरी कमर पर हाथ रखा।
पर जब उसकी हथेली मेरे नितंबों पर पहुँची—
**मैंने उसका संपूर्ण जीवन-ऊर्जा खींचनी शुरू कर दी।**
उसकी आंखें उलटने लगीं,
शरीर तड़प उठा, और होंठों से निकला—
"मायरा… तु… चुड़ैल नहीं… तू स्वर्ग और नर्क की मिलन-सीमा है…"
और फिर…
**वो चरम पर गया। पर उसकी आत्मा वहीं पर रुक गई।**
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सुबह…
बुंदेलखंड का राजा मरा पाया गया—बिल्कुल नग्न, पर चेहरे पर ऐसा संतोष… जो तपस्वियों को भी नसीब नहीं।
और मैं?
**एक और आत्मा चख चुकी थी… एक राजा को भी।**
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**"आरव… अब तुम बच पाओगे?"
या तुम भी मेरी एक और भूख बनकर… मेरे भीतर समा जाओगे?"**