**"मायरा अध्याय 1: पहली भूख"**
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**स्थान:** राजस्थान की रेत से घिरी हवेली
**वर्ष:** 1887
**उम्र:** 19
**मैं, मायरा। पहली बार किसी पुरुष को छुआ था। लेकिन सिर्फ छुआ नहीं… उसे चख लिया था।**
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वो गर्मियों की एक रात थी। हवेली के आंगन में बेला की खुशबू फैली थी। मैं शीशे के सामने खड़ी होकर बालों में गुलाब लगा रही थी, जब दरवाज़े पर दस्तक हुई।
"रघुवीर आया है, बिटिया। ज़मींदार साहब का बेटा," नौकरानी ने धीरे से कहा।
रघुवीर… 25 साल का जवान, ऊँचा गठा बदन, और आँखों में मर्दाना जिद। वो मुझे चाहता था… और मैं चाहती थी **उसे जला देना।**
मैंने उसे अपने कमरे में बुलाया। कमरा हल्की मोमबत्तियों से रोशन था। मैं पलंग पर बैठी थी, एक लाल जरीदार साड़ी में, पीठ से बिल्कुल खुली।
"आपने बुलाया, मायरा जी?"
उसकी आवाज़ कांपी।
"हां रघुवीर… एक बात बताओ… कभी किसी औरत के सपनों में खोए हो?"
वो मुस्काया, "हर रात… लेकिन वो सपने अब आपकी शक्ल ले चुके हैं।"
मैं धीमे-धीमे उसके पास गई, और उसके होंठों पर अंगुली रख दी—"तो अब सपने सच होते देखो।"
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मैंने उसकी कमीज़ खोलनी शुरू की।
हर बटन के नीचे उसका धड़कता दिल मुझे ललचा रहा था।
मैंने अपनी उंगलियों से उसकी छाती पर अक्षर बनाए—काम, प्यास, भूख।
और फिर… उसकी गरदन पर होंठ रखे।
उसने मुझे पकड़ना चाहा, लेकिन मेरी आँखों में कुछ था—जो उसे जड़ कर गया।
मैंने उसे धीरे-धीरे पलंग पर लिटाया, और खुद उसके ऊपर आ गई।
मेरे बाल उसकी छाती पर गिर रहे थे। मैं नीचे झुकती गई… उसके कान, गर्दन, और फिर… उसकी आत्मा के सबसे कामुक बिंदु पर **अपने होंठ रखे।**
उसके जिस्म ने काँपते हुए चरम महसूस किया।
लेकिन…
**मेरे अंदर कुछ जाग उठा।**
एक अग्नि जो उसके रस से पनप रही थी।
उसकी आखिरी चीखें मेरे कानों में संगीत की तरह थीं।
और जब वो climax पर पहुंचा, **मैंने उसकी ऊर्जा पी ली।**
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**सुबह…**
वो ज़िंदा नहीं था।
लेकिन उसका चेहरा शांत था… जैसे उसने जीवन में सबसे मधुर मृत्यु पाई हो।
**और मैं?**
मैं पहली बार तृप्त थी। लेकिन वो सिर्फ शुरुआत थी।
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**"मेरी भूख तब से कभी मिटी नहीं…
पर अब, आरव… अब मुझे बस एक तू चाहिए।"**
**"मायरा — अध्याय 2: तपस्वी बाबा"**
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**स्थान:** अरावली की तलहटी में एक प्राचीन मंदिर
**वर्ष:** 1890
**मैं, मायरा। उस दिन मैंने काम और तप का टकराव देखा था। और अंत में… वासना की जीत।**
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मैं हवेली से निकल कर पहाड़ों की तरफ गई थी। अंदर की प्यास बढ़ती जा रही थी। मैं किसी साधारण पुरुष से नहीं, **एक ऐसे से मिलन चाहती थी, जिसकी आत्मा तप में डूबी हो… ताकि उसका पतन मुझे चरम पर पहुंचाए।**
और वहाँ वो था — **बाबा वत्सलानंद।**
दाढ़ी सफेद, शरीर दुबला, पर आँखें… **कामना से चिंगारी देती हुईं।**
जब मैंने पहली बार उन्हें देखा, तो वो ध्यान में बैठे थे। शरीर पर केवल भगवा वस्त्र, आँखें बंद… लेकिन उनके मन की लहरें मैं महसूस कर रही थी।
मैं मंदिर के सामने आई। उनके चेले बोले,
"बाबा किसी से नहीं मिलते।"
मैं मुस्कराई, और कहा, "पर मैं कोई नहीं हूँ। मैं **माया** हूँ… स्वयं में मोह का स्वरूप।"
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**रात को बाबा की कुटिया में...**
वो ध्यान कर रहे थे। मैंने चुपचाप प्रवेश किया। उनकी आँखें खुलीं, और मैं उनके सामने बैठ गई।
उनकी नजरें पहले मेरे पांवों पर पड़ीं… फिर मेरी जांघों पर… फिर मेरी खुली पीठ पर जाकर रुक गईं।
"तू कौन है?"
"मैं वो हूँ जिसे तेरे मन ने रोका है… लेकिन तन ने बुलाया है।"
मैं उनके पास झुकी, और धीरे-धीरे उनका मस्तक चूमा।
वो काँपे…
उनका मंत्र टूट गया।
"तू मुझसे क्या चाहती है?"
मैंने उनके कानों में फुसफुसाया—
**"तेरा संपूर्ण समर्पण। तेरे योग का उल्लंघन। और… तेरे व्रत की समाप्ति।"**
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फिर वो क्षण आया।
बाबा अब बाबा नहीं रहे… **वो एक पुरुष थे**—मेरे नीचे, कांपते हुए।
मैंने उनका जपमाला तोड़ी, हर मोती के साथ एक सिसकी टूटी।
मैंने उनकी तपस्या की जड़ों को चूमा… और फिर उसे पिघलाया।
वो शिखर तक पहुँचे… और फिर एक गहरी सांस के साथ, **उनका ब्रह्मरथ मेरे अंतर में समा गया।**
मैंने उनका वीर्य नहीं, **उनकी तप-शक्ति पी ली।**
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सुबह मंदिर में पूजा नहीं हुई।
चेलों ने बाबा को निर्वस्त्र पाया—निस्तेज, पर मुस्कुराता हुआ।
और मैं… एक नई ऊर्जा के साथ हवेली की ओर बढ़ गई।
**अब मैं साधु की शक्ति भी बन चुकी थी।**
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**"आरव… ये सब मैंने तेरे लिए लिखा। ताकि तू समझ सके… मेरा प्रेम कोई साधारण स्त्री का नहीं है… वो प्यास है… आत्मा तक चूस लेने वाली।"**
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