बजरंग बत्तीसी – समीक्षा व छंद 4
बजरंग बत्तीसी के रचनाकार हैं महंत जानकी दास जी । “वह काव्य शक्ति में भी सिद्ध थे। उनकी अन्य काव्य कृतियां हैं जैसे राम रसायन, काव्य सुधाकर,ऋतु तरंग,विरह दिवाकर, रस कौमुदी, सुमति पच्चीसी, सुयश कदम और बजरंग बत्तीसी आदि । यह रसिक बिहारी तथा रसिकेश उपनाम से काव्य रचना करते थे।“( प्रस्तावना प्रश्ठ एक) बजरंग बत्तीसी में अधिकतर कवित्त छंदों का प्रयोग है। एक दो स्थानों पर सिंहावलोकन छंद भी आए हैं। सिंहालोकन छंद का उदाहरण देखिए -
गारि दे गुरुर नूर झारि दे जु गर्विन को सहित सहाय रिपु मंडली उजारि दे ।
जारि दे सुधाम धाम द्रोहिन को झारि मारि ,दम्भी दीह दुष्टन को मूल ते उपारि दे ।
पारि दे विपत्ति बेगि बैरिन के झुंडन पै चुगल चबाईन को बाँधि के विडारि दे।
डारि दे मद धन को पाँय तर मेरे वीर रसिक बिहारी कल कीरति बगारि दे
अद्भुत बात है 'बगारि दे' पर यह छन्द समाप्त हुआ है और आरंभ भी गारि दे से हुआ है इस तरह यह जलेबी की तरह एक दूसरे में गुथा हुआ है । सिंहावलोकन छंद के बारे में कहा जाता है कि अगली पंक्ति शुरू होने पर अगली पंक्ति का पहला शब्द पिछली पंक्ति के आखिरी शब्द को दुहराता है। इस छंद में यह भली भांति देखा जा सकता है। इस बजरंग बत्तीसी का साहित्यिक महत्व भी महत्वपूर्ण है। इसके अंतिम दो छंद संस्कृत के श्लोक हैं ,जो प्रकट करते हैं कि इस कृति के रचयिता को संस्कृत छंद शास्त्र का ज्ञान था।
संपादक प्रस्तोता और अर्थ करता भावार्थ लिखने वाले मदन मोहन वैद्य जी चिरगांव के रहने वाले हैं। जिनका हनुमत साधना प्रकाशन के नाम से इस पुस्तक का प्रकाशन भी हुआ है। मदन मोहन वैद्य जी ने सदा हनुमान जी की उपासना की, साधना की और भक्तों के निमित्त बजरंग बत्तीसी छपाई, जिसका मुद्रण व्यय गीतांजलि ट्रेडर्स झांसी ने उठाया था। इसका उदारता पूर्वक प्रथम पृष्ठ पर संपादक महोदय ने आभार भी व्यक्त किया है। इस ग्रंथ के कुछ छन्द अपने इस टिप्पणी के समर्थन में मैं प्रस्तुत कर रहा हूं-
(२५)
जैसे वीर पकरि पछारों अच्छ को प्रतच्छ, जैसे काल नेमि को लपेटि भूमि पारो है।
जैसे मेघनाथ को विहाल करि डारो हाल, जैसे महिरावने चरण चापि मारो है।
जैसे बेगि सुरसा को उदर बिगारो कपि, जैसे ह्वै निसंग बंक लंक गढ़ जारोहै।
तैसे यह बैरी को विथारो केसरी कुमार, स्वबल विचार कहा मेरी बार हारोहै।।
भावार्थ- हे वीर! जैसे आपने रावण पुत्र अक्ष को प्रत्यक्ष ही पकड़ कर पछाड़ दिया था, जैसे राक्षस कालनेमि को पूँछ में लपेट कर भूमि पर पटक दिया था। जैसे आपने मेघनाथ का हाल-बेहाल कर डाला था और जैसे महिरावण को अपने चरणों से दबाकर मार डाला था। जैसे आपने बेग पूर्वक सुरसा का उदर विगाड़ डाला था और जिस प्रकार निशंक होकर अनुपम लंका के किले को जला दिया था। ठीक उसी प्रकार इस बैरी को नष्ट-भ्रष्ट कर दीजिये। हे केशरी कुमार ! अपने बल पर विचार कीजिये, क्यों आप मेरी बार इस तरह हार रहे हैं?।। २५।।
(२६)
याद कर कैसी वीरता ते तूं जरायों लंक याद कर कैसी वीरता तें अच्छ मारो है।
याद कर कैसे वीरता तें सिंधु नाध्यो वीर, याद कर कैसे कालनेमि को पछारो है।।
याद कर कैसी वीरता तें तूं उजारो वन, याद कर कैसे महिरावन विदारो है।
केसरी कुमार सोई वीरता विचार निज, एक बार काहै बलवान बल हारो है॥
भावार्थ- स्मरण कीजिये कैसी वीरता से आपने लंका जलाई थी और स्मरण कीजिये कैसी वीरता से अक्ष को मारा था? हे वीर ! याद कीजिये कैसी वीरता से आपने सिन्धु को लांघा था और याद कीजिये कैसे कालनेमि को पछाड़ दिया था? याद करें किस तरह की वीरता से आपने अशोक वन को उजाड़ दिया था और याद करिये किस तरह से महिरावण को विदीर्ण किया था? हे केशरी कुमार! अपनी उसी वीरता का विचार कीजिये। हे बलवान एक मेरी वार क्यों आप अपने बल को हार रहें हैं?।। २६।।
(२७)
सम्पति घनेरी चहुँ ओर तें भरा दे ढिग, आदर दिवादे औ बढ़ादे जस नाम को।
पकरि प्रचण्डन को पाँय पै परादे मेरे, पास में पठा दे नर नारी अभिराम को ।।
मो बस करा दे सब धनिक प्रवीन बहु सहित कुटुम्ब नृप मण्डली ललाम को।
'रसिक बिहारी' को मनोरथ पुजा दे वीर, जो पै हनुमान दूत साँचो सियाराम को ॥
भावार्थ- मेरे पास चारों ओर से घनेरी सम्पत्ति संचित कर दीजिये और आदर दिला कर यश एवं नाम को बढ़ा दीजिये। प्रचण्डों को पकड़कर मेरे चरणों पर नत कर
दीजिये और अभिराम स्त्री-पुरूषों को मेरे निकट भेज दीजिये। सब धनिकों तथा बहुत से प्रवीणों को एवं परिवार सहित श्रेष्ठ राजाओं को मेरे बस में कर दीजिये। हे वीर हनुमान जी! यदि आप श्री सीताराम जी के सच्चे दूत हैं तो 'रसिक बिहारी' के मनोरथों को पूर्ण कर दीजिये ।। २७।
(२८)
नारि दे गरूर दूर झारि दे जु गर्विन को, सहित सहाय रिपु मण्डली उजारि दे।
जारि दे सुधाम ग्राम द्रोहिन को झारि मारि, दम्भी दीह दुष्टन को मूलतें उपारि दे ॥
पारि दे विपत्ति बेगि बैरिन के झुण्डन पै, चुगल चबाइन को बाँधि के बिडारि दे।
डारि दे मद धन को पाँय तर मेरे वीर, 'रसिक बिहारी' कल कीरति बगारि दे॥२८।।
भावार्थ-अभिमानियों के घमण्ड को गला दीजिये, उनकी शोभा को हटा दीजिये और सहायकों सहित शत्रु-मण्डली को उजाड़ दीजिये। द्रोहियों को एकत्रित कर मार डालिये, उनके सुन्दर स्थानों, तथा ग्रामों को जला दीजिये और दम्भी बड़े दुष्टों को जड़ों से उखाड़ डालिये। दुश्मनों के समूहों पर शीघ्र ही विपत्तियाँ पटक दीजिये और चुगल खोर निंदकों को बाँध कर भगा दीजिये। हे वीर ! धन के अभिमान में चूर व्यक्तियों को मेरे पैरों के नीचे डाल दीजिये और 'रसिक बिहारी' की सुन्दर कीर्ति फैला दीजिये ।। २८ ।।
(२९)
कोप कर मारे तू तो सकल अरातिन कों, तुहीं मन मोहै नर नारिन को जायकै।
दोख दुख दारिद कलेश को उधारै तुहीं, आकरषै तूहीं सुख सम्पत्ति बढ़ायकै ॥
तूंही असतम्भै मुख वाक्य विकरालन के वस्य करै तुहीं सबही कों वीर धाय कै।
'रसिक बिहारी' बिजै तूहीं बहु ठौर राखै, केसरी किशोर हो सहाय मेरी आयके ॥ २९
भावार्थ- आप ही क्रोध करके सम्पूर्ण बैरियों को मारते हैं और आप ही जाकर नर-नारियों के मनों को मोहित करते हैं। आप ही दुःख, दारिद्र, क्लेश को दूर करते हैं और आप ही आकर्षित करके सुख-सम्पत्ति की वृद्धि करते हैं। आप ही विकराल व्यक्तियों के मुखों में वाक्यों को स्तम्भित कर देते हैं और हे वीर! आप ही दौड़ कर सब को वश में कर लेते है। 'रसिक बिहारी' की बहुत से स्थानों पर आप ही विजय करवाते हैं इसलिये हे केशरी किशोर ! आप ही आकर मेरी सहायता करने का कष्ट करें ।। २९।।
(३०)
इच्छित मिला दे, बहु जस बगरा दे वीर, वित्त सरसा दे, दरसा दे तू अनन्द को।
बुद्धि को बढ़ादे, सन्मान को दिवादे बेगि, पैजहिं पुरा दे औ दुराय दे छल छन्द को ।।॥ '
रसिकबिहारी' को काज आज ही करादे निज, प्रभुता जनादे तोको कौल रघुचन्द को।
राम की दुहाई दे निहोरी हनुमान तोहि, आन मान जौ पै दूत साँचो रघुनन्द को ॥३०।।
भावार्थ- हे वीर ! मेरे इच्छित को मिला दीजिये, मेरे प्रचुर यश को फैला दीजिये, मुझे धन प्रदान कीजिये और आनन्द के दर्शन करा दीजिये। मेरी बुद्धि को बढ़ा दीजिये, मुझे शीघ्र ही सम्मान दिला दीजिये, मेरी प्रतिज्ञा पूरी करा दीजिये और मेरे छल-छन्दों को दूर कर दीजिये। 'रसिक बिहारी' के यह सारे कार्य आज ही करा दीजिये, अपनी प्रभुता को ज्ञात करा दीजिये, आपको श्री रघुनाथ जी का कौल है। श्री रामजी की दुहाई देकर, हे श्री हनुमानजी ! आपसे विनय करता हूँ यदि आप श्री रघुनाथ जी के सच्चे दूत हैं तो इस आन को मान लीजिये।३०।
(३१)
देहि वरदानम वीर संप्रति यथे हि
, कुरु चानुकम्पां तब चरणों भजाम्यहं।
दुर्जनानि भंजय विभंजय सुदुर्दिनानि, श्रृणुध्वाञ्जनेय दीन बचसा बदाम्यहं ।॥
झटित गृहाण भो ऽनिलात्मज तवासनाय, कलुष दरिद्रारातयूथं प्रददाम्यहं ।
सुवित्त रसिकेस्यानुमोदं. दातु पवनात्मजां मौं पातु शिरसा नमाम्यहं ॥ )३१)
भावार्थ- हे वीर ! जैसी इच्छा हो अब वह वरदान प्रदान कीजिये और अनुकम्पा कीजिये कि मैं आपके चरणों का भजन करता रहूँ। दुर्जनों को नष्ट कीजिये, बुरे दिनों को भली भाँति कुचल दीजिये। मैं दीन वाणी बोलता हूँ, उसे सुनिये। हे अनिलात्मज। मैं आपके भोजन के लिये कलुष - दरिद्रता, शत्रुओं के झुण्डों को आपको प्रदान करता हूँ, इन्हें शीघ्र ग्रहण कर लीजिये। 'रसिकेश' को सुवित्त एवं मोदसे पूर्ण कीजिये। हे पवनात्मज ! मुझे अपनी रक्षा प्रदान कीजिये, मैं शिर झुकाकर आप को नमन् करता हूँ ।। ३१ ।।
(३२)
मा कुरु विलम्व वीर संकटा दुधार यासु दासोहं तवाम्भीत्यभि याचतोऽपि दीनोऽहं ।
दिक्षु वितनोतु कीर्ति विपुलों तनोतु लक्ष्मी देहि रासिकेशस्याभिलाषं त्वदधीनोहं ॥
निर्भयो हि भूमौ विचराम भवदाश्रयण, सकल सुकर्म - मन वचनान्मलीनोऽहं ।
करूणा कटाक्षणावलोकय वयं भो, कपेनानां भावयामि पवनात्मजविहीनोहं ।३२।।
भावार्थ- हे वीर! मैं संकटों में फंसा हूँ, इन्हें दूर करने में विलम्ब मत कीजिये, मैं आपका दीन दास आपसे याचना करता हूँ। दिशाओं में मेरी विपुल कीर्ति फैला दीजिये, 'रसिकेश' की अभिलषित लक्ष्मी प्रदान कीजिये, मैं आप के आधीन हूँ। मैं आपके आश्रय से निर्भय होकर भूमि पर विचरण करता हूँ। मैं मन-वचन-कर्म से सकल सुकर्मों से मलीन हूँ। हे कपीश! मुझे करूण-कटाक्ष से देखिये। हे पवनात्मज ! मैं आप से दूर होकर भी आपको प्रणाम करता हूँ॥ ३२॥
!! इति !!
श्री बजरंग बत्तीसी की पाठ्य विधि
सांसारिक जीवन में जब प्राणी विकट संकटों से घिर जाए, अपने या स्वजननों की जीवन आशा टूटती प्रतीत हो, सभी उपाय निष्फल प्रतीत होते हों, उस समय बत्तीसी के पाठ का चमत्कारिक अनुभव प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
किसी खास संकट के समय रात्रि के आठ बजे के बाद शुद्ध आसन बिछा कर सामने श्री हनुमान जी की मूर्ति या चित्र रखकर, दीपक या अगरबत्ती जलाकर, स्नान करके भीगी वस्तुओं सहित बैठकर एक ही आसन में सात पाठ लगातार करें। पाठ समाप्ति पर दीन भाव से प्रणत जान होकर श्री हनुमान जी से कार्य संपूर्ति की प्रार्थना करें । उनकी कृपा से कार्य अवश्य सफल होगा। यदि आंगन में बैठकर पाठ किया जाए तो उत्तम है। इसके साथ ही हनुमान चालीसा या हनुमान बाहुक के एक या सात पाठ कर दिए जाएं तो प्रभाव की मात्रा में विद्युत गति व्याप्त हो जाती है। यह तो हुई असाधारण संकट बेला की बात, यदि भक्त जन किसी निश्चित पूजन स्थान पर प्रतिदिन एक पाठ करते रहें और पाठ के समय अगरबत्ती या दीपक निरंतर जलता रहे तो वाचक सदैव सुख समृद्धि की ओर बढ़ता रहेगा। उसकी सारी आपत्ति विपत्तियां दूर भगती रहेगी । कहा तो यहां तक जाता है कि बत्तीसी के पाठ से दूर कार्य संपन्न किया जा सकता है । फिर भी वाचक को नेष्ट कार्यों से बचना चाहिए। निष्काम भाव से ही प्रभु आंजनेय की आराधना करनी चाहिए। उससे बिना मांगे भक्त की रक्षा और चतुर्मुखी विकास होगा। विशेष ध्यान रखें कि पाठ में उच्चारण यथासंभव शुद्ध हो तथा तन मन साफ स्वच्छ रहे पाठ के बाद शुद्ध शाकाहारी भोजन करें तथा संयम का पालन करें।