बजरंग बत्तीसी – समीक्षा व छंद 2
बजरंग बत्तीसी के रचनाकार हैं महंत जानकी दास जी । “वह काव्य शक्ति में भी सिद्ध थे। उनकी अन्य काव्य कृतियां हैं जैसे राम रसायन, काव्य सुधाकर,ऋतु तरंग,विरह दिवाकर, रस कौमुदी, सुमति पच्चीसी, सुयश कदम और बजरंग बत्तीसी आदि । यह रसिक बिहारी तथा रसिकेश उपनाम से काव्य रचना करते थे।“( प्रस्तावना प्रश्ठ एक) बजरंग बत्तीसी में अधिकतर कवित्त छंदों का प्रयोग है। एक दो स्थानों पर सिंहावलोकन छंद भी आए हैं। सिंहालोकन छंद का उदाहरण देखिए -
गारि दे गुरुर नूर झारि दे जु गर्विन को सहित सहाय रिपु मंडली उजारि दे ।
जारि दे सुधाम धाम द्रोहिन को झारि मारि ,दम्भी दीह दुष्टन को मूल ते उपारि दे ।
पारि दे विपत्ति बेगि बैरिन के झुंडन पै चुगल चबाईन को बाँधि के विडारि दे।
डारि दे मद धन को पाँय तर मेरे वीर रसिक बिहारी कल कीरति बगारि दे
अद्भुत बात है 'बगारि दे' पर यह छन्द समाप्त हुआ है और आरंभ भी गारि दे से हुआ है इस तरह यह जलेबी की तरह एक दूसरे में गुथा हुआ है । सिंहावलोकन छंद के बारे में कहा जाता है कि अगली पंक्ति शुरू होने पर अगली पंक्ति का पहला शब्द पिछली पंक्ति के आखिरी शब्द को दुहराता है। इस छंद में यह भली भांति देखा जा सकता है। इस बजरंग बत्तीसी का साहित्यिक महत्व भी महत्वपूर्ण है। इसके अंतिम दो छंद संस्कृत के श्लोक हैं ,जो प्रकट करते हैं कि इस कृति के रचयिता को संस्कृत छंद शास्त्र का ज्ञान था।
संपादक प्रस्तोता और अर्थ करता भावार्थ लिखने वाले मदन मोहन वैद्य जी चिरगांव के रहने वाले हैं। जिनका हनुमत साधना प्रकाशन के नाम से इस पुस्तक का प्रकाशन भी हुआ है। मदन मोहन वैद्य जी ने सदा हनुमान जी की उपासना की, साधना की और भक्तों के निमित्त बजरंग बत्तीसी छपाई, जिसका मुद्रण व्यय गीतांजलि ट्रेडर्स झांसी ने उठाया था। इसका उदारता पूर्वक प्रथम पृष्ठ पर संपादक महोदय ने आभार भी व्यक्त किया है। इस ग्रंथ के कुछ छन्द अपने इस टिप्पणी के समर्थन में मैं प्रस्तुत कर रहा हूं-
(९)
तेरे ही किये तें सब अमर निसंक भये, तेरे ही किये तें कपिराज राज पायो है।
तेरे ही किये तें धीर धारी उर जानकी जू, तेरे ही किये तें रण राम जस छायो है ।।
तेरे ही किये तें वीर लछ्मन के प्रान रहे, चारों वेद तेरो ही अखण्ड गुन गायो है।
'रसिक बिहारी' सदा तेरो ही भरोसो रहे, ताके काज हेत यो विलम्ब क्यों लायो है ।।९।।
भावार्थ- आपके कार्यों के कारण सब देवता निशंक हो गये, आपके उद्यम से कपिराज सुग्रीव को राज्य प्राप्त हुआ। आपके कृतित्व से ही माता जानकीजी ने हृदय में धैर्य धारण किया, आप के प्रयत्नों से ही श्रीराम की कीर्ति रण भूमि में व्याप्त हुई है। आप के कौशल से वीर लक्ष्मण जी के प्राण बच पाये हैं। 'रसिक बिहारी' को सदा आपका ही भरोसा रहता है। हे नाथ। इस सेवक के कार्य हेतु आप इतना विलम्ब क्यों लगा रहे है?।। ९।।
(१०)
आरत पुकारत हों बार बार तेरे द्वार, पवन कुमार तो उदारता कहाँ भई।
कुग्रह कुजोग रोग दारिद जु दुष्ट लोग, दलमल डार या कठोरता कहाँ लई ।।
तेरो बल विदित उदण्ड महि मण्डल में, 'रसिक बिहारी' हेतु धीरज कहाँ ठई।
आनन्द बढ़ाय दे, दिवाय दे अपार वित्त, वीर हनुमान तेरी वीरता कहाँ गई ॥
भावार्थ- मैंने आर्त्त होकर बार-बार आपके द्वार पर पुकारा है, हे पवनकुमार ! आपकी उदारता कहाँ चली गई हैं? क्या यह खराब ग्रहों का दुर्योग है, रोग है, दरिद्रता है या दुष्ट लोगों का आक्रमण है? इन सब को आप कुचल डालिये। आपकी इनके प्रति जो कठोरता रहती थी, वह कहाँ चली गई है? आपका प्रचण्ड बल सम्पूर्ण पृथ्वी के लोगों को ज्ञात है, फिर अपने-अपने भक्त 'रसिक बिहारी' के प्रति ऐसा धैर्य क्यों धारण कर रक्खा है? अपने भक्त का आनन्द बड़ा दीजिये, उसे अपार धन भी दिलवा दीजिये। हे वीर हनुमान! ऐसा करने वाली आपकी वीरता इस समय कहाँ चली गई हैं? ।। १० ।।
(११)
कैधों वीर थकित भये सब अंग तुव, कैधों कलिकाल को प्रभाव हित हूलिगो ।
कैधों हनुमान हारि हिम्मत डरानो बहु, कैंधों काहु बली को हिये में बल सूलिगो ।
'रसिक बिहारी' की बिसारी सुधि पौनपूत, कपट घनेरो अब कैधों उर झूलिगो।
कैधों भक्त दीनन ते रूठो ही रहन लागो, कैधों बलवान तोहि तेरो बल भूलिगो ॥११।।
भावार्थ-है वीर! मुझे ऐसा लगता है कि या तो आप के सब अंग थकर गये हैं या फिर कलियुग का प्रभाव आपके हृदय में शूल उत्पन्न कर रहा है? अथवा आप हिम्मत हारकर भयभीत हो गये हैं, या फिर किसी बलवान का बल आपके हृदय को पीड़ित कर रहा है? हे पवन पुत्र! आपने अपने भक्त 'रसिक बिहारी' की सुधि भुला दी है या फिर उसका सघन कपट आपके हृदय में छा गया है? ऐसा लगता है कि आप अपने दीन भक्तों से नाराज रहने लगे हैं, अथवा हे बलवान ! आपको अपना बल ही विस्मृत हो गया है? ।। ११ ।।
(१२)
कीधों काहु कर कै पठायों जंत्र - मंत्र, कीधौं काहू ग्रह की प्रचण्ड बाधा आई है।
कीधों सीतपित्त कफ कोपि कै दियो है दुख, कीधों कहा जानू कछु पूरव कमाई है।
तेरो मैं कहाय वीर पावत अचैन ऐसो, अंजनी कुमार तोहि सकुच न आई है।
'रसिक बिहारी' को क्लेस सब दूर कर, ऐ रे रामदूत तब तेरी वीरताई है॥१२। ।
भावार्थ- मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे किसी शत्रु ने जन्त्र-मंत्र करके मेरे ऊपर भेजा है या फिर किसी प्रचण्ड ग्रह की बाधा मेरे ऊपर आ गई है। अथवा शीत, पित्त आदि कुपित हो कर मुझे दुख दे रहे हैं या फिर मैं नहीं जानता कि पूर्व जन्मों के किन दुष्कर्मों का यह फल है? हे वीर! मैं आपका दास कहलाता हूँ फिर भी ऐसा अचैन पा रहा हूँ,
हे अंजनी कुमार ! क्या इस से आप को संकोच नहीं होता है? हे राम दूत! 'रसिक बिहारी' का सम्पूर्ण क्लेश दूर कीजिये, तब ही आप की सच्ची वीरता है।॥ १२॥
(१३)
अक्ष को विदारो, कालनेमि को पछारो वीर, विपिन उजारो, पुर जारो दस माथ को।
कारो मेघनाथ को त्रिकूट को उखाड़ो गढ़ , लंक को विथारो, कहैं तेरे गुन गात को ।
'रसिक बिहारी' दुख टारो, नैक तो निहारो, अंजनी दुलारो, काज सारो तुव हाथ को।
समरथ वारो कहा मेरी बार हारो तू तो दीन रखवारो दूत प्यारो रघुनाथ को ॥13।।
भावार्थ- आपने रावण पुत्र अक्षयकुमार को विदीर्ण किया,
राक्षस कालनेमि को पछाड़ कर मार डाला, दशमाथ रावण का अशोक वन उजाड़ कर उसके पुर लंका को जला दिया। रावणपूत महाबली मेघनाथ की कीर्ति को काला कर दिया, त्रिकूट पर बसा लंकागढ़ उखाड़ कर उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया, लोग आपकी गुण-गाथायें इसी प्रकार कहते हैं। 'रसिक बिहारी' के दुखों को टाल दीजिये, उस की ओर जरा सी दया-दृष्टि से देखिये, हे माता अंजनी के दुलारे लाल ! यह सारा कार्य आपके हाथ में, आपके नियंत्रण में ही है। आप सामर्थ्यवान है, मेरी बार आप हार क्यों मानते हैं? आप तो दीनों के रक्षक और रघुनाथ जी के प्यारे दूत हैं।। १३।।(१४)
सुजस अपारो, तिहुँ लोक में प्रचारो भारो, सब गुन बारो वीर दायक अनन्द को।
'रसिक बिहारी' काज पूरन करन बारो, मंगल भरन वारो विविध प्रबन्द को ॥
संकट हरन वारो, दुष्टन दरन वारो, उद्धत छरन वारो, छुद्र छल - छन्द को ।
समरथ वारो, कहा मेरी वार हारो, तँ तो दीन रखवारो, दूत प्यारो रघुनन्दको ॥१४।।
भावार्थ- आपका अपार सुयश है और तीनों लोकों में इसका भारी प्रचार भी है। हे वीर! आप सम्पूर्ण गुणवान है और आनन्द को देने वाले हैं। 'रसिक बिहारी' के सभी कार्यों को पूर्ण करने वाले हैं और विविध प्रबन्धों के द्वारा भक्त को मंगल से भरने वाले हैं। आप संकट हरने वाले हैं, दुष्टों का दलन करने वाले हैं। नीचों के छल-छन्दों का विनाश करने के लिये उद्धत रहते हैं। आप ऐसे सामर्थ्यवान होते हुये भी मेरी बारी पर क्यों हार मान रहे हैं? यह उचित नहीं है। आप तो दीनों के रखवाले और श्री रघुनाथ जी के प्यारे दूत हैं।। १४।।
(१५)
तू तो वीर सुखद सदा ही दीन दासन को, 'रसिक बिहारी' हेतु सम्पत्ति की से करें।
मुष्टन से मारि कै विदारत अतुष्टन को, जोम जुष्ट रुष्ट पुष्ट दुष्टन की छै करै ॥
चर्व - चर्व डारत अखर्व गर्व गर्विन को, विघ्न के कृतघ्नन कों मारि विघ्न तै करें।
ऐरे हनुमान बलवान गुन के निधान, बेगि हो सहाय मेरी तू ही नित्य जै करै ॥७
भावार्थ- हे वीर! आप अपने दीन-दासों के लिये सदा ही सुखद रहे हैं। 'रसिक बिहारी' के लिये आपने सदैव सुख-सम्पत्ति की वृद्धि की है। विरोधियों को मुष्टि की मार से सदैव छिन्न-भिन्न करते रहते हैं। प्रबल अभिमानी दुष्टों के समूह को आपने सदैव क्षय किया है। अभिमानियों के बहुत बढ़ते हुये गर्व को आप चबा-चबा कर दूर करते रहते हैं। विघ्न पैदा करने वाले विघ्नकर्ताओं को मार कर सदैव विघ्न नष्ट करते रहे हैं। शक्ति से युक्त गुणों के भण्डार हे हनुमान जी ! आप शीघ्र सहायक होकर मेरी नित्य-प्रति जय करते रहते हैं।। १५
(१६)
गावत घनेरो बल तेरो चहुँ वेदन में, अंजनी कुमार वीर विरद अनूठो है।
सोई सुन मैं तो तुव द्वार पै पुकार करी. आज लौं सुनी ना कछु, मो पे कहा रूठो है।
'रसिक बिहारी' अभिलाख पूरि दै कपीश, देर क्यों लगाई, काहे मो सो यों अतूठो है।
मेरो दुख दारिद अराति जो न दूर कियो, जानो हनुमान तो तिहारो जस झूठो है॥16।।
भावार्थ- चारो वेदों में आपके अगाध बल का गायन है। हे अंजनी कुमार! आपकी वीरता का यश अनूठा है। वही सुन कर मैंने आपके द्वार पर पुकार की है। आपने मेरी इस पुकार को आजतक नहीं सुना है, मुझ पर आप क्यो-क्यो नाराज हैं? हे कपीश! 'रसिक बिहारी' की अभिलाषा पूरी कर दीजिये। आपने इस में विलम्ब क्यों किया है? किस कारण आप मुझ से असन्तुष्ट हैं? मेरे दुख, दारिद्र और शत्रुओं का आपने दूर नहीं किया तो मैं समझूगा कि आपका यश झूठा है।। १६ ।।