Mother...an incomplete story in Hindi Short Stories by ekshayra books and stories PDF | मां........एक अधूरी-पूरी कहानी

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मां........एक अधूरी-पूरी कहानी

अध्याय (1) मिट्टी में खेलती गुड़िया


मैंने माँ को पहली बार तब नहीं देखा जब मैं पैदा हुई,

बल्कि तब, जब मैंने उसकी पुरानी फोटो देखी —

एक पतली सी लड़की, घुटनों तक फ्रॉक पहने, मिट्टी में बैठकर गुड़िया बना रही थी।

हाथों में मिट्टी थी, आँखों में सपने।

कभी स्कूल जाना चाहती थी, तो कभी पापा के खेतों में काम करके सबको खुश करना।

"बचपन में तेरी नानी मुझे नए कपड़े नहीं दिला पाई," माँ कहती थी,

"पर मैं हर त्योहार में अपनी पुरानी फ्रॉक धो के, उसमें फूल टांक के पहन लेती थी…

किसी से कम थोड़ी लगती थी।"

उसकी कहानी वहीं से शुरू हुई थी —

कमियों से भरा बचपन, लेकिन शिकायतों से खाली दिल।

उसने बहुत कुछ झेला — चप्पलों के बिना स्कूल जाना,

भूखे पेट किताबों में खो जाना, और

हर बार तबस्सुम के साथ सब सह लेना।

मैं जब भी अपनी पढ़ाई से थक जाती,

वो अपनी कहानियाँ सुनाती —

"हम तो लालटेन की रौशनी में पढ़े हैं बेटा,

तेरे पास तो ट्यूबलाइट है, तो तू तो आसमान छू सकती है।"

माँ कभी खुद के लिए नहीं लड़ी,

बस अपने घर के लिए — अपने भाइयों के लिए,

और फिर... मेरे लिए।


बेटी का खत मां के नाम~


माँ,

तेरा बचपन पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे मैं भी उन गलियों में फिर से चल रही हूँ,

जहाँ तू बिना चप्पल के दौड़ती थी… सिर पर दो चोटियाँ, आँखों में शरारत।

माँ, तेरे वो मिट्टी से सने हाथ, तेरी गुड्डे-गुड़ियों की शादियाँ, और वो पुराने झूले…

मैंने उन्हें किताबों में नहीं, तेरे चेहरे की मुस्कान में देखा है।

काश उस वक़्त कोई होता जो तेरे सपनों को पकड़ लेता,

काश तू सिर्फ़ 'बड़ी बहन', 'बेटी', या 'ज़िम्मेदारी' न होती…

बल्कि एक बच्ची रह पाती — थोड़ी और देर के लिए।

माँ, तेरे उस बचपन को मैं अब अपनी कलम से जियूँगी,

तेरे हर भूले ख्वाब को मैं आवाज़ दूँगी…

क्योंकि तू मेरी माँ है — और मेरी कहानी तेरे बिना अधूरी है।


अध्याय (2) मां की शादी 


वो दिन माँ की आँखों में अब भी ताज़ा था।

"मैं उस दिन ज़्यादा नहीं रोई थी," माँ ने एक बार मुझसे कहा था,

"क्योंकि मुझे पता था रोने से कुछ बदलेगा नहीं।"

उसकी शादी 19 की उम्र में हो गई थी।

ख़ुद को पूरी तरह समझ भी नहीं पाई थी,

और किसी और की ज़िम्मेदारी बन गई।

लाल जोड़े में वो सच में दुल्हन नहीं,

एक चुप सी बच्ची लग रही थी —

जिसे समझाया गया था कि अब ये तेरा घर है,

और पिछला घर सिर्फ़ यादें बन चुका है।

उसने घर छोड़ा, माँ-बाप छोड़े, वो गलियाँ छोड़ीं जहाँ वो भाग के खेला करती थी।

अब उसकी दुनिया सिमट गई थी एक चौका-चूल्हा और कुछ नए रिश्तों में,

जिन्हें निभाने के लिए उसे ख़ुद को थोड़ा-थोड़ा रोज़ खोना पड़ा।

पापा सीधे-साधे थे, लेकिन रिश्तों की ज़िम्मेदारियाँ भारी थीं।

माँ ने बिना शिकायत, सब अपनाया।

सास के ताने, पड़ोस की तुलना,

हर बार एक ही जवाब — मुस्कान।

धीरे-धीरे माँ ने सब सीखा —

कैसे सबको टाइम पर खाना देना,

कैसे खुद भूखी रहकर भी दूसरों का पेट भरना।

मैं जब सोचती हूँ कि 19 की उम्र में मैं क्या कर रही थी —

शायद कॉलेज के नोट्स गिन रही थी, या इंस्टा स्क्रॉल कर रही थी…

और माँ उस उम्र में

पूरी गृहस्थी संभाल रही थी।

बेटी का खत मां के नाम ~

माँ,

शादी तो हर लड़की की होती है, पर जो जंग तूने लड़ी… वो कोई कहानियों में ही होती है।

तूने अपने सपनों को बिना कहे समेट लिया, सिर्फ़ इसलिए कि घर टूटे नहीं।

तेरे उस लाल जोड़े में छुपी बेबसी मैं आज भी पढ़ सकती हूँ, माँ।

और आज सोचती हूँ… क्या तू कभी सच में ‘खुश’ थी?

तू चुप थी… पर मैं अब तेरी कहानी चुप नहीं रहने दूँगी।

अध्याय (3) मां का मां बनना


माँ बनने से पहले वो खुद भी अधूरी सी बच्ची ही थी शायद,

पर जब पहली बार तू उसके पेट में आई —

वो दिन, उसकी ज़िंदगी का सबसे लंबा और सबसे प्यारा दिन बन गया।

"मैं बहुत डर गई थी," उसने कहा था,

"क्योंकि पहली बार मुझे लगा, अब मैं किसी की माँ हूँ…

और माँ होना मतलब बस बच्चा पैदा करना नहीं होता —

माँ होना मतलब हर दिन खुद को पीछे छोड़ते जाना होता है।"

गर्भ के नौ महीने…

जैसे हर पल एक इम्तिहान था —

सुबह की मिचली, कमज़ोरी, कभी भूख नहीं लगती थी,

तो कभी नींद नहीं आती थी।

फिर भी वो तेरे लिए लोरी गाती थी —

तेरे होने से पहले ही तुझे जीने लगी थी।

जब तू पैदा हुई —

वो दिन उसके लिए दुनिया का सबसे बड़ा इनाम था,

लेकिन उसके साथ ही शुरू हुई एक ऐसी दुनिया

जहाँ वो बस "माँ" बन गई…

नाम, शौक, नींद, सब कुछ धीरे-धीरे किसी कोने में बंद होता चला गया।

तेरे हर रोने पर वो जागती रही,

तेरे हर हँसने पर मुस्कुराती रही —

खुद कभी नहीं पूछा किसी से,

"मैं ठीक हूँ ना?"

वो मां बनने के बाद भी कभी ‘हाउसवाइफ’ बनी, कभी ‘ट्रेनर’, कभी ‘डॉक्टर’, कभी ‘टीचर’ —

बिना किसी सैलरी, बिना किसी छुट्टी।

और जब कभी थक जाती थी, तो बस इतना कहती —

"सो जा बेटा, तुझे कुछ नहीं होना चाहिए…"

बेटी का खत मां के नाम ~

माँ,

जब लोग कहते हैं ‘माँ बनना आसान नहीं’, मुझे हँसी आती है।

क्योंकि वो बस एक लाइन में कह देते हैं… पर तूने तो हर दिन उसे जिया है।

तेरी सूजी हुई आँखें, तेरा काँपता बदन, तेरी छुपी हुई थकान — सब याद है मुझे।

माँ, तूने मुझे दुनिया दी, और मैंने क्या दिया तुझे? सिर्फ़ कुछ शब्द…

पर कसम से, मैं इन शब्दों से तेरा नाम अमर कर दूँगी।

अध्याय (4) मां के सपने और उनकी खामोशी


माँ कभी ज़्यादा नहीं बोलती थी।

हमेशा कहती थी, "बस जो मिल जाए, उसी में खुश रहना चाहिए।"

पर उसकी आंखों में अक्सर कुछ तैरता रहता था —

जैसे कोई भूली हुई दुनिया,

जैसे कोई सपना जो देखा तो था,

पर जिया नहीं।

एक बार मैंने पूछा था —

"माँ, तू क्या बनना चाहती थी?"

वो मुस्कुराई थी — वही अधूरी मुस्कान —

और बोली थी, "टीचर। बहुत मन था बच्चों को पढ़ाने का…"

फिर वो चुप हो गई थी।

जैसे कुछ याद आ गया हो — कोई पुराना झूला, कोई अधूरी किताब,

या शायद कोई सपना जो वक़्त की धूल में कहीं गुम हो गया।

उसने कभी अपनी ख्वाहिशें ज़ोर से नहीं बोलीं।

कभी नहीं कहा कि उसे नई साड़ी चाहिए,

या कहीं बाहर घूमने जाना है,

या एक दिन बस अपने लिए जीना है।

उसके ख्वाब उसकी रोटियों में घुल गए थे।

उसके सपने उसके बर्तनों की खनक में खो गए थे।

उसकी आवाज़ — जो कभी कॉलेज में लीडर बनना चाहती थी —

अब सिर्फ़ "खाना खा लो" और "ख्याल रखना" तक सिमट गई थी।

और दुनिया ने कहा, "कितनी सादी और सीधी औरत है।"

पर सच तो ये था कि माँ सादी नहीं थी,

वो बस सबकी थी… पर कभी खुद की नहीं हो पाई।

बेटी का खत मां के नाम ~

माँ,

अब समझ आया कि तेरी खामोशी में कितनी कहानियाँ दबी थीं।

तू बस मेरी माँ नहीं थी — तू एक लड़की थी, एक सपना थी, एक जिद थी, जिसे दुनिया ने धीरे-धीरे चुप करा दिया।

पर मैं तेरे हर उस अधूरे ख्वाब को जिऊँगी माँ, जो तूने मेरी नींदों के लिए छोड़ दिए थे।

कसम है, मैं तुझे सिर्फ़ माँ बनकर नहीं जाने दूँगी — मैं तुझे तेरे पूरे नाम के साथ जिऊँगी।

अध्याय (5) मां का बुढ़ापा 


वो माँ, जो कभी तेज़-तेज़ चलती थी,

अब चलते वक़्त दीवार पकड़ लेती थी।

जिसकी आवाज़ से पूरा घर गूंजता था,

अब वही आवाज़ धीमे-धीमे खोने लगी थी।

चेहरे पे झुर्रियाँ आईं,

पर मुस्कान अब भी वही थी —

थोड़ी सी हौले से फैली हुई,

जैसे अब भी कह रही हो — "मैं ठीक हूँ।"

उसके हाथ जो कभी मुझ पर साया करते थे,

अब कांपने लगे थे।

पर जब मैं उदास होती,

वो वही कांपते हाथ मेरे सिर पर फेरती —

और सब दर्द गायब हो जाता।

वो कम बोलती थी अब…

लेकिन उसकी आँखें बहुत कुछ कहती थीं —

कि अब वो थक चुकी है,

कि अब वो खुद से कम, और मुझसे ज़्यादा जुड़ी हुई है।

वो कभी-कभी अपने बचपन की बातें दोहराती,

या कोई पुरानी फिल्म याद करती,

जैसे वक़्त के साथ उसका मन अब अपने अंदर लौटने लगा था।

मैंने उसे कई बार अकेले बैठकर खिड़की से बाहर देखते हुए पकड़ा।

जैसे वो किसी का इंतज़ार कर रही हो —

या शायद बस उन दिनों को देख रही हो,

जो अब कभी वापस नहीं आएंगे।

मैं चाहती थी कि मैं वक़्त को रोक सकूं…

पर वक़्त किसी की नहीं सुनता।

और माँ धीरे-धीरे… एक कहानी सी बनती जा रही थी।

बेटी का खत मां के नाम ~

माँ,

अब तू मुझसे कम कहती है, पर मैं सब समझती हूँ।

तेरे झुकते कंधे, तेरी थकी आँखें, सब मुझसे कहती हैं कि तू अब आराम चाहती है।

पर माँ, एक वादा है मेरा — अब तू थकेगी नहीं। अब मैं तेरा सहारा बनूंगी, जैसे तू मेरी थी।

और जब तू अपनी आँखें बंद करेगी किसी दिन, तो वो बंद आँखों में मैं तेरी पूरी ज़िंदगी जिऊंगी।


अध्याय (6) मां का जाना 


वो दिन भी आ गया, जिसका डर माँ के हर छींक, हर खाँसी के साथ मन में पनपता था।

सुबह-सुबह वो नहीं जागी…

चाय का कप खाली था, गैस भी बंद थी…

घर में एक अजीब सी खामोशी थी —

जैसे दीवारें खुद चुप हो गई हों।

मैं दौड़ के पहुँची,

उसका चेहरा शांत था…

बिलकुल वैसा जैसे वो बस सो रही हो —

पर इस बार नींद थोड़ी लंबी थी।

मैं हिलाती रही, पुकारती रही,

“माँ उठ ना… देख, तेरी चाय ठंडी हो गई…”

पर वो नहीं उठी।

वो चली गई —

बिना शिकायत, बिना शोर,

जैसे हमेशा करती थी।

उस दिन मुझे समझ आया,

माँ सिर्फ़ एक इंसान नहीं थी…

वो एक आदत थी।

जिसकी मौजूदगी महसूस नहीं होती थी,

पर उसकी गैरमौजूदगी सब कुछ तोड़ देती है।

मैंने सबकुछ संभालने की कोशिश की…

रिवाज़, रिश्तेदार, आँसू — सब।

पर सबसे मुश्किल था वो कमरा बंद करना

जहाँ माँ हर दिन बैठती थी,

जहाँ से उसकी ख़ुशबू अब भी आती थी।

हर चीज़ में माँ थी —

उसका छोड़ा हुआ दुपट्टा,

उसका लिखा हुआ छोटा सा पर्चा "बेटा, खाना खा लेना",

उसके चश्मे की फ्रेम… सब।

अब जब लोग पूछते हैं —

“तुम ठीक हो?”

मैं मुस्कुरा देती हूँ।

क्योंकि माँ की बेटी हूँ —

जो खुद बिखर कर भी दूसरों को संभालना जानती है।

बेटी का आख़िरी ख़त मां के नाम~

माँ,

तू चली गई, पर मैं तुझे रोज़ महसूस करती हूँ।

तेरी साड़ी की महक अब भी तकिए पर है…

तेरे हाथ की रोटियाँ अब नहीं मिलेंगी, पर भूख अब भी तुझे ही ढूँढती है।

माँ, तू चली गई… पर तेरा नाम मेरी हर साँस में ज़िंदा रहेगा।

मैं अब भी तेरे लिए जी रही हूँ — हर उस ख्वाब के लिए जो तूने खुद से चुपचाप छीन लिए थे।

माँ… तू कहीं नहीं गई… तू अब मेरी रूह में बस गई है।




"अपनी माँ को आज गले लगा लो,

उसके हाथ पकड़ लो,

उससे बिना वजह बात कर लो…

क्योंकि बहुत से लोग ऐसे हैं —

जिनके पास अब सिर्फ़ माँ की तस्वीरें हैं, आवाज़ें नहीं।"