एक शाम, जवानी थक कर एक बेंच पर बैठी थी…
मोबाइल हाथ में था, नोटिफिकेशन ऑन, लेकिन मन ऑफ।
एक अजीब सा खालीपन, हर रोज़ की दौड़, हर पल का प्रेशर।
ज़िंदगी जी भी रही थी, और कहीं से छूट भी रही थी।
तभी एक हल्की सी आवाज़ आई —
“पहचाना मुझे?”
जवानी ने पलट कर देखा… एक छोटी सी लड़की, झूले जैसी हँसी, आँखों में चमक,
हाथों में टूटी हुई गुड़िया, मुँह चॉकलेट से भरा हुआ।
“मैं… तेरा बचपन हूँ,” उसने कहा।
जवानी थोड़ी मुस्कुराई, थोड़ी छुपी —
“तू तो कब का छूटा था… अब क्या लेने आई है?”
बचपन ने हाथ पकड़ा, खींच के बोला —
“आई हूँ याद दिलाने... कि तू सिर्फ बड़ी हुई है,
लेकिन अंदर का मैं अभी भी ज़िंदा हूँ।”
“आजा,” उसने कहा,
“एक बार फिर से बिना सोचे हँस लें,
एक बार फिर से बादल देख कर 'वाह' बोल लें,
फिर से वो गलियों वाली धूप में दौड़ लगाएँ,
और बिना किसी वजह के खुश हो जाएँ।”
जवानी चुप थी।
आँखों के कोने गीले हो गए थे…
क्या उसने कभी सोचा था कि एक दिन ख़ुद से मिलने का भी वक़्त आएगा?
बचपन फिर बोल पड़ी,
“तू रोज़ हँसते हुए सेल्फ़ीज़ लेती है,
पर असली मुस्कान तो मैंने दी थी तुझे।
तू लोगों से मिलती है, पर ख़ुद से दूर हो गई है।”
उस दिन जवानी ने फोन साइड में रखा।
ज़मीन पर बैठ गई, मिट्टी उठा के घूरती रही।
घर वापस जाकर डायरी निकाली,
जिसमें आख़िरी बार कुछ क्लास 5 में लिखा गया था…
“मैं बड़ी होकर राइटर बनूँगी।”
उस लाइन को पढ़ते ही कुछ तो टूट गया, कुछ तो जुड़ गया।
उस रात, जवानी ने फोन साइलेंट किया,
एक पुरानी मैगी बनाई, और बिना किसी गिल्ट के खाई।
फिर बालकनी में बैठकर तारे देखे,
और बिना किसी वजह के मुस्कुराई…
बचपन गया नहीं था, छुप गया था कहीं,
जवानी ने ढूँढना छोड़ दिया था बस...
उस दिन दोनों मिले, तो ज़िंदगी मुस्कुराई थी।
और जब रात को नींद आई,
तो सपना कोई नहीं… बस एक मुस्कान थी।
लगता है, उस दिन जवानी ने जीना नहीं,
फिर से महसूस करना सीख लिया था।
...रात के आख़िरी पहर में, जवानी ने एक लंबी साँस ली।
दिल के किसी कोने में एक नर्मी सी महसूस हुई थी, जैसे कोई बोझ उतर गया हो।
बचपन अब उसके सामने नहीं था,
पर उसकी बातें उसके अंदर गूंज रही थीं।
अगले दिन सुबह, जवानी ने अपने रूटीन में थोड़ा सा ब्रेक लिया।
ऑफ़िस जाते वक़्त वही गली से गुज़री, जहाँ कभी धूप से बचने के लिए पेड़ के नीचे छुप जाया करती थी।
एक कोने में पुरानी साइकिल की दुकान अब भी थी,
और उसके बाहर वही अंकल… जिन्होंने कभी उसकी पंचर रिपेयर की थी — बिना पैसे लिए।
जवानी ने उन्हें देखा, और अनजाने में एक मुस्कान आ गई।
उनकी आँखों में पहचान थी —
“बचपन गया है, बेटा, लेकिन तेरे चेहरे पर अब भी वही रौशनी है।”
उस पल में जवानी समझ गई —
बचपन कोई वक़्त नहीं था, एक एहसास था।
जो हम छोड़ नहीं देते, बल्कि दबा देते हैं ज़िम्मेदारियों के नीचे।
शाम को उसने अपनी डायरी खोली,
और लिखा:
"मैं बड़ी हो गई हूँ,
पर आज भी उस छोटी सी लड़की के बिना अधूरी हूँ,
जिसने बिना सोचे सपने देखे,
और बिना डरे उनके पीछे दौड़ी थी।"
उस रात उसने अपने लिए चाय बनाई,
ना शुगर काउंट सोचा, ना कैफीन लिमिट।
सिर्फ़ एक कप… और एक ख़्याल —
“मुझे जीना है… ख़ुद के साथ।”
और ऐसे ही, हर दिन… जवानी ने थोड़ा थोड़ा बचपन जीना शुरू किया।
कभी छोटी सी टॉफ़ी ले ली बिना वजह,
कभी बिना बात टेरेस पर बारिश में भीग ली,
और कभी बस रात के 2 बजे एक पुरानी मूवी लगा ली — जैसे पहले मम्मी से छुप के देखती थी।
लोग कहते रहे — “ये चाइल्डिश है”,
पर जवानी हर बार मुस्कराकर कहती —
"मैं अपने बचपन से मिली हूँ…
और उसने मुझे याद दिलाया है —
ज़िंदगी जीने के लिए बड़ा बनना ज़रूरी नहीं,
दिल से छोटा रहना काफ़ी है।”