"जंगल जा रहे हैं..." ये शब्द सुनते ही दिल के किसी कोने में हलचल सी मच जाती है। जैसे कोई पुरानी याद, कोई बीता हुआ लम्हा अचानक ज़िंदा हो गया हो। बचपन में जब पहली बार पापा के साथ जंगल सफारी पर गया था, वो हरियाली, वो सन्नाटा, वो चिड़ियों की चहचहाहट, सब कुछ आज भी वैसा ही ताज़ा है।मगर आज जब मैं ये लिख रही हूँ, तो इस वाक्य का मतलब कुछ और ही है। अब "जंगल जा रहे हैं" का अर्थ है — जंगल धीरे-धीरे ख़त्म हो रहे हैं। पेड़ कट रहे हैं, जानवर गायब हो रहे हैं, और जो सन्नाटा कभी सुकून देता था, आज डराने लगा है। हम सच में जंगल जा रहे हैं — यानी उन्हें खोते जा रहे हैं। जंगल की पुकारबचपन के वो दिन याद हैं, जब गर्मियों की छुट्टियों में दादी के गांव जाते थे। वहां से कुछ ही दूर एक घना जंगल था। गांव के बच्चे मिलकर लकड़ियों की टोकरियां उठाकर जंगल की ओर निकलते थे। उस वक्त जंगल में जाना एक साहसिक कार्य होता था। वहां डर भी लगता था, पर वो डर रोमांच में बदल जाता था जब मोर नाचते दिखते, या हिरण झुंड में दौड़ते हुए नज़र आते।जंगल की मिट्टी की वो ख़ुशबू, बारिश में भीगे पत्तों की सोंधी महक, और सूखे पत्तों पर चलने की चरमराहट... ये सब जीवन का हिस्सा लगते थे। आज वो आवाजें कहीं खो गई हैं। अब अगर कोई जंगल जाता है तो वो या तो एक टूरिस्ट होता है या फिर एक शिकारी।जंगल का मौनकभी सोचा है, जंगल चुप क्यों हो गए हैं?पहले जंगल ज़िंदा थे — हर पेड़ की शाख पर कोई न कोई पंछी अपना घर बनाता था। हवा जब गुजरती थी, तो पत्तों से बात करती थी। अब वही पेड़, वही जंगल मौन हैं। वो चीखना चाहते हैं, पर उनकी आवाज़ कोई नहीं सुनता।हर साल लाखों पेड़ काट दिए जाते हैं — कभी विकास के नाम पर, कभी सड़क बनाने के लिए। क्या हमने कभी सोचा कि उन पेड़ों के साथ क्या-क्या कटता है? उन पर बसे पक्षियों का घर, उन पेड़ों की छांव में पनपती ज़िंदगियां, सब कुछ खत्म हो जाता है। जंगल का मौन, उसकी सबसे गहरी चीख है, जिसे हमने अनसुना कर दिया है।जानवर जा रहे हैंजंगल सिर्फ पेड़ों का नाम नहीं है — वह एक पूरी दुनिया है। वहां की हर पत्ती, हर जीव, एक संतुलन बनाकर चलते हैं। लेकिन जैसे-जैसे हम जंगलों में घुसे, वैसे-वैसे वहां के बाशिंदे बाहर निकलने लगे।क्या आपने कभी किसी शहर के बाहर किसी तेंदुए को भटकते देखा है? या खबर पढ़ी है कि कोई हाथी गांव में घुस आया? ये जानवर पागल नहीं हो गए हैं। दरअसल, हम उनके घर में घुस आए हैं और अब उन्हें बेघर कर दिया है। इंसान ने जंगल को अपनी ज़रूरत के हिसाब से तोड़-मरोड़ दिया है, और अब वही जानवर, जिन्हें कभी हमने पूजा, अब हमसे डरते हैं, हमसे छुपते हैं। जंगल और इंसान का रिश्ताहमने यह तो पढ़ा है कि मनुष्य और प्रकृति में गहरा संबंध है, लेकिन क्या उस संबंध की गहराई को कभी महसूस किया है?जंगल सिर्फ ऑक्सीजन नहीं देते, वे जीवन का भाव देते हैं। वे हमें शांत करते हैं, हमें आत्मा से जोड़ते हैं। जब हम थक जाते हैं इस दुनिया की दौड़ में, तो एक पहाड़ी जंगल की गोद हमें सुकून देती है। लेकिन अगर यही जंगल ना रहे, तो हम कहां जाएंगे? हमारी आत्मा को कौन सुकून देगा?हम जिस तेज़ी से पेड़ों को काट रहे हैं, नदी-झरनों को सुखा रहे हैं, वो दिन दूर नहीं जब हम अपने बच्चों को पेड़ सिर्फ किताबों में दिखाएंगे। वे जंगल की कहानियों को किसी पुरानी कल्पना की तरह सुनेंगे — जैसे हम परियों की कहानियां सुनते थे। उम्मीद की किरणहालांकि हालात निराशाजनक हैं, लेकिन पूरी तरह से अंधेरा नहीं है। आज भी कुछ लोग हैं, जो जंगलों के लिए लड़ रहे हैं। कुछ गांवों ने मिलकर वृक्षारोपण की मुहिम चलाई है। कुछ जंगल आज भी बचे हैं, जहां इंसानी लालच अभी नहीं पहुंचा।सरकारें भी अब धीरे-धीरे पर्यावरण की ओर ध्यान दे रही हैं। ‘वन महोत्सव’, ‘प्लांट ए ट्री’ जैसे अभियान चलाए जा रहे हैं। लेकिन ये सिर्फ औपचारिकताएं बनकर रह जाएं, तो कोई फायदा नहीं। असली बदलाव तभी आएगा जब हर इंसान खुद को जंगल का हिस्सा माने। अगर हम जंगल जा रहे हैं — यानी उन्हें खो रहे हैं — तो कल हमें खुद ही अपने बच्चों के भविष्य के लिए जंगल बनना होगा। हमें वो छांव देनी होगी, जो अब नहीं रही। हमें वो हवा देनी होगी, जो अब शुद्ध नहीं रही।आइए, आज एक वादा करें — हर साल कम से कम एक पेड़ लगाएंगे, उसे बड़ा करेंगे। अपने बच्चों को जंगलों की कहानियां नहीं, जंगलों की सैर कराएंगे। उन्हें सिखाएंगे कि जंगलों से प्यार करना ज़रूरी है — क्योंकि जहां जंगल हैं, वहीं जीवन है।---"जंगल जा रहे हैं" — ये वाक्य अब सिर्फ एक दुःखभरी सच्चाई नहीं, बल्कि एक चेतावनी है। अगर अब भी नहीं चेते, तो जंगलों के साथ-साथ हमारी इंसानियत भी चली जाएगी।तो चलिए, जंगल को बचाएं... ताकि अगली पीढ़ी सिर्फ कहानियों में नहीं, हकीकत में जंगल को देख सके, महसूस कर सके, और कह सके —"हम जंगल जा रहे हैं..." एक बार फिर, मगर इस बार उन्हें बचाने के लिए।