हरिसिंह हरीश की कुछ और रचनाएं व समीक्षा 2
दर्द की सीढ़ियां (ग़ज़ल संग्रह)
हरि सिंह हरीश अपनी युवावस्था के समय से ही लिखने के प्रति बड़े समर्पित रहे हैं। वह कहते थे कि जब वह छठवें क्लास में पढ़ रहे थे तो होमवर्क की कॉपियों पर उपन्यास लिखने लगे थे। दरअसल उन्हें कुशवाहा कांत के उपन्यास पढ़ने का बड़ा शौक था । वे मुरार ग्वालियर में रहते थे और वहां की लाइब्रेरी से किताबें निकालकर खूब पढ़ते थे ।वे जिस मिल के कैंपस में निवास करते थे,उस मिल के मालिक ने भी लाइब्रेरी में अपने खाते से हरीश जी को किताबें निकालने की सुविधा प्रदान कर दी थी । तो एक छोटे से बच्चे में लिखने की इतनी ललक इस कारण पैदा हुई कि वह पढ़ते भी बहुत थे। यह अलग बात है कि पढ़ने उन्हें उतनी कलात्मक ऊंचाई नहीं सिखा पाया, हां नियमित लिखने की प्रेरणा दे गया। वे चाहते थे कि जैसी किताबें लाइब्रेरी में रखी रहती थी, उनकी रखी जाए। बस इसी इच्छा से उन्होंने लिखना शुरू किया। वे अध्यापक रहे पर ड्यूटी से आके नियमित रोज एक न एक रचना लिखते थे, गीत लिखते थे, गजल लिखते थे या मुक्तक लिखते थे, उपन्यास भी लिखते थे। उनके लिखे 40 उपन्यास अप्रकाशित रह गए ।उनके लिखे 10000 गीतों में मुश्किल से 500 भी छप पाए। उनकी 15000 गजलों में मुश्किल से ढाई तीन सौ ही गजल छपिया होगी। मुक्तक तो छपे ही नहीं अब इस पर दुख मनाया नहीं जाना चाहिए, क्योंकि प्रकाशक वही छापेगा जो पाठक मांगेगा छोटे प्रकाशक तो सदा ही अपनी छापी हुई सारी प्रतियाँ लेखक या कवि को ही सौंप देने चाहते हैं, वे ही बेच दें, वे ही बाजार में भेजें । वही लाइब्रेरी में भेजें ।तो हरि सिंह हरि ज्यादा नहीं छपे।
हां फिर भी उनके उनका एक उपन्यास कली भँवरे और कांटे छाप और मन के गीत नमन के अक्षर भजन संग्रह तथा लगभग 10 अन्य किताबें छपी, जिनमे 6 गीत संग्रह और गजल संग्रह भी कहे जा सकते हैं । भले ही वे काव्यशास्त्र के सिद्धांत पर गीत के मानक पर पूरे ना उतरते हो,ग़ज़ल के मानक पर बहुत बड़े ना हो और गजल के चंद्र शास्त्र पर तो वे कतई गजल न हों। लाख ग़ज़ल ना कहलाई जाने वाली रचनाओं के संग्रह हो । तो ऐसे कभी रचयिता को श्रद्धांजलि स्वरुप में उनकी कुछ रचनाएं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं
(२१)
तिल-विल कर जल रहा है, यह आदमी वो देखो।
जरा गौर करके इसमें क्या है कमी वो देखो?
आकाश ओढ़ करके, धरती बिछाये बैठा.
दो गज गुजारने को, इसकी जमीं वो देखो ।
तन का नहीं है गोरा, मन का नहीं है काला,
इसका रंग है निराला, यह बादगी तो देखो ।
फूलों सा खिल रहा है, चेहरा जनाब इसका,
यह फूल कितना अच्छा मौसमी तो देखो ।
शोले भरे हुए हैं, इसके जिगर के अन्दर,
ऊपर से लग रहा है यह शबनमी तो देखो ।
शायर 'हरीश' है यह, लिखने में रम रहा है,
दुःख - दर्द की जिगर में इसमें नमीं तो देखो।
(૨૨)
यह मुहल्ला आजकल कुछ अनमना रहने लगा है।।
बनते-बनते हर मकां यहां अधबना रहने लगा है।
आदमी की यहां शक्ल पर अब बारह बजने लग गए,
इसलिये हर आदमी दुख में सना रहने लगा है।
ख़ामोशियों को इसने सीने में रख लिया है,
लग रहा है यह हमें यह सिर धुना रहने लगा है।
बात करता ही नहीं है यह किसी से आजकल,
शक्ल से ही लग रहा यह कुनमुना रखने लगा है।
इस मौहल्ले की नजाकत खो गई जाने कहां,
हाथ का स्वेटर सभी का अध बुना रहने लगा है।
देख करके कह रहा है 'हरीश' इसके दर्द को,
इसलिये ही यह मुहल्ला सबसे वना रहने लगा है
(२३)
देखो कैसा हाल हुआ है ?
यह तो यार कमाल हुआ है।
कल तक वह दौलत वाला था, आज बहुत कंगाल हुआ है।
वह कैसा है यार बताओ,
यह क्या आज सवाल हुआ है ?
हर कोई दोषी सा लगता,
सबका यही ख्याल हुआ है।
नेताओं की वजह देखिये,
भारत में भूचाल हुआ है।
भीख मांगने के दिन आए,
कितना ऊँचा भाल हुआ है ?
जो भी खाता मर जाता है,
जहरीला हर माल हुआ है।
हर दिन अब रो-रोकर कटता,
कैसा देखो साल हुआ है ?
हाय 'हरीश' चन्द रोजों में,
यह क्या दीनदयाल हुआ है ?
(२४)
अभिव्यक्त करो मन से जीवन की कहानी को ।
मोती की तरह समझो, हर आँख के पानी को ।
दुःख दर्द हरो सबका, संसार में रह करके,
वर्ना करेंगे क्या हम बेकार जवानी को ?
बोलो किसी से जब भी, वो प्यार से मिल बोलो,
मिसरी सी मधुर करने इस अपनी सु-बानी को ।
देखो हमेशा सपने सुख के ही जिन्दगीं में,
रंगीन बनालो तुम, हर रात सुहानी को ।
ऐ 'हरीश' इतना तुम करके दिखा जाओ,।
खुशियों से जीने दीजे हर एक ही प्रानी को।
(२५)
एक सात बीत गई, एक रोज और सही।
दीवाली बीत गई भाई दोज और सही।
चन्द्रलोक पर जा करके झन्डा फहराया है।
सूर्यलोक जाने की एक खोज और सही ।
कारगिल के हत्यारों डरकर क्यों बैठ गए,
मरघट पर जाने का एक पोज और सही ।
ऐ भारत के प्यारे शहीदो प्रणाम तुम्हें.
दुश्मन से लड़ने को एक फौज और सही ।
शायर 'हरीश' तुझे यहीं जन्म लेना है,
जीने और मरने को एक रोज और सही।
(२६)
छत नहीं है सर के ऊपर. सिर्फ यह आकाश है।
देख लेना आप आकर, गर नहीं विश्वास है।
मैं नहीं हूं दूर तुमसे, यह तुम्हें मालूम है,
घर हमारा देखियेगा, आपके ही पास है।
झाँक लेना खिड़कियों से मैं तुम्हें दिख जाऊँगा,
यह हमारे पास देखो, देखने को खास है।
तुम हमेशा सोचते रहते हो ये ही रात को,
यह हमें मालूम है, क्या वैय इतिहास है ?
चार दिन को आ गए हो आप मेरे गाँव में,
वर्ना रहना आपका होता रहा मद्रास है।
कह दिया 'हरीश' ने आपसे यह सोचकर,
आपका तो शौक केवल खेलना भर ताश है।
(२७)
किस तरह गरमा रही है. आजकल ठंडी सड़क ? ।
मन ही मन घबरा रही है आजकल ठंडी सड़क ।
अब नहीं उस ओर जाते लौग देखो घूमने,
आदमी मरवा रही है, आजकल ठंडी सड़क ।
आ नहीं बेटे यहां पर, कहना मेरा मानले,
यह मुझे समझा रही है, आजकल ठंडी सड़क ।
भूत-प्रेतों का बहुत है डर यहां पर देखिये,
यह हमें बतला रही है, आजकल ठंडी सड़क ।
पहले जैसी मैं नहीं हूँ, यह भी सच तू मानले,
भुतहा तभी कहला रही है, आजकल ठंडी सड़क ।
चार दिन से देखियें 'हरीश' गुमसुम सा रहे,
दिल तभी दहला रही है, आजकल ठंडी सड़क ।
(२८)
नई सड़क भी आजकल कितनी पुरानी लग रही।
नई सड़क की आजकल ये ही कहानी लग रही।
हर तरफ गड्ढे ही गड्ढे हो गए हैं देखिये,
ये सभी पूरी हमारी, मेहरबानी लग रही।
अब नहीं कह पायेंगे ये घूमने जाते समय,
देखियेगा ये सड़क कितनी सुहानी लग रही ?
कूड़ा-करकट किस कदर फैला हुआ है हर तरफ.
ये भी देखो हम सभी की ही निशानी लग रही ।
बन गईं अनगिन दुकानें, बन गए अनगिन मका,
इसलिये ही अब कहां ये रात रानी लग रही।
नई सड़क पहले थी लेकिन आजकल ये है नहीं,
नई सड़क की आजकल लुटी जवानी लग रही।
नई सड़क का था दीवाना कल वलक ये ही 'हरीश',
आजकल तो ये सड़क, कितनी पुरानी लग रही।
(२९)
देखा है मैंने आज सितारों में चाँद को ।
फूलों की हंसी-रंगी कतारों में चाँद को ।
नजरों से अब ही यार की नजरें मिली कहीं,
इठलाता हुआ देखा बहारों में चाँद को ।
दुनिया की खाक जिसने भी छानी है प्यार में,
उसने ही देख डाला हजारों में चाँद को ।
कश्ती चाहे तूफान में चौतरफा घिर उठे,
मैं डूबकर पा लूंगा कनारों में चाँद को ।
अदना 'हरीश'प्यार में दीवाना हो गया,
रो रो के बना लूंगा मैं धारों में चाँद को ।
(३०)
बन्द घरों का ताला खोलो ।
पहले तुम उस वाला खोलो ।
पंडित, मुल्ला खोल न पाए,
अब तुम जाकर लाला खोलो ।
दूल्हे मियां द्वार पर बैठे,
जल्दी जाकर खाला खोलो ।
अगर खुले यह नहीं हाथ से,
मार हथौड़ा साला खोलो ।
गर्मी में सब खड़े धूप में,
दुश्मन यह परकाला खोलो ।
पहले भी तुमने खोला था.
बेटी जाकर माला खोलो ।
तूने दंड लगाए जमकर,
पहलवान जी ज्वाला खोलो ।
बिन चाबी के है यह ताला,
ताला बड़ा निराला खोलो
३१)
आजकल ये आदमी जंगे सामा सा लगे ।
बचके रहना दोस्तो यह ओसामा सा लगे ।
अब नहीं कमजोर है यह, बोलकर वो देखिये,
अब तो हर इक आदमी मुझको गामा सा लगे।
हैं करोड़ों लोग लेकिन सूरतें सबकी जुदा,
एक भी ऐसा नहीं जो दलाई लामा सा लगे ।
सैकड़ों भगवान देखो बन गए इस देश में,
फिर भी कोई दोस्तो न हमको करिश्मा सा लगे ।
औरतों का रूप अब वो अटपटा लगने लगा,
अब नहीं इनमें कोई भारत-मां सा लगे ।
कह रहा 'हरीश' सबसे यह भी सुनते जाईये,
न कृष्ण सा लगता कोई, न सुदामा सा लगे ।
(૨૨)
आजकल ये आदमी लादेन की तरह लगे ।
तेज चलती जिन्दगी की ट्रेन की तरह लगे ।
यह आदमी भुतहा किसी किले की तरह हो गया,
जो जी पागलों के डगमगाते ब्रेन की तरह लगे ।
हर तरह का काम करने के लिये माहिर हैं ये,
देखिये यह आदमी उस क्रेन की तरह लगे ।
न दवा से, न दुआ से जो कभी न खत्म हो,
यह किसी के दिल का यारो पेन की तरह लगे ।
शायर 'हरीश' कह नहीं पाता है अब इस बात को
तेज चलती ट्रेन की यह चेन की तरह लगे ।
(३३)
तेरे पास आऊ, मगर किस तरह ? हाल अपना सुनाऊँ, मगर किस तरह ?
साथ लेकर तुम्हारा जरा हाथ में, प्यार में डूब जाऊं, मगर किस तरह ?
कैसे जीते रहे हम तुम्हारे बिना, हाल अपना बताऊँ, मगर किस तरह ?
सोचता हूं तुम्हें प्यार जी भर करूं, साथ लेकर घुमाऊं, मगर किस तरह ?
सोचता हूं जमाने से बेखौफ हो, सीने से लगाऊं, मगर किस तरह ?
'हरीष्श' जी लिया है, तुम्हारे बिना, अब मर के दिखाऊँ मगर किस तरह ?
(38)
कुछ दिनों के बाद चारों ओर हल्ला हो गया ।
यह आदमी भी आजकल कितना निठल्ला हो गया ।
क्या खिलायें बोलो इसको, ख़त्म है सामां सभी,
रोटियों के वास्ते घर खत्म गल्ला हो गया।
नल नहीं आते हैं घर पर, कट गया मेरा कनेक्शन,
एक लोटा शेष था उस से ही कुल्ला हो गया ।
मंदिरों के ये पुजारी, कब से खड़े स्नान को.
और बजू के वास्ते कई बार मुल्ला हो गया ।
पढ़ गए लड़के सभी, पर नौकरी मिलती नहीं,
अब जगह खाली नहीं है खुल्लम खुल्ला हो गया ।
यत को वो रात को, दिन में ही गोली चल रही.
देश का हर आदमी जंगे-गुरिल्ला हो गया ।
घट गई रुपयों की कीमत क्या जमाना आ गया. '
हरीश' अब रुपया यहां का एक अधिल्ला हो गया ।
(३५)
राधा का कृष्ण आजकल दिखता नहीं कहीं।
माखन के लिए चोरियां करता नहीं कहीं।
मंदिर में बन गया है खोने की मूरती. वाला लगा हुआ है. विचरता नहीं कहीं।
ना रास रचाता है, ना चीर चुराता है,
न दुश्मन को मार करके धरता नहीं कहीं।
ना कंस ये पछाड़े, ना नाग नाथे ये.
कहते थे लोग कृष्ण तो डरता नहीं कहीं।
कहवा 'हरीश' कृष्ण कुछ चक्कर में फंसा है,
पीड़ा किसी की आजकल हरता नहीं कहीं।
(३६)
हम देवता नहीं हैं, हम आदमी हैं यारो ।
तेरा रंग कोई सा हो, हम बादमी हैं यारो ।
देखी सभी ने होंगी, फूलों की रौनकें,
हम भी हैं फूल लेकिन, हम मौसम्मी हैं यारो।
दुश्मन खदेड़ डाले जिसने स्वयं के दम से,
कोई और वो नहीं है, वो भी हमीं है यारो ।
शोले भरे जिगर में, आँखों में लाख आँसू,
वैसे वो देखने में हम शबनमी हैं यारो ।
अदना सा आदमी हूं, लिखने का शौक मुझको
शायर 'हरीश' में तो लाखों कमीं हैं यारो ।
(३७)
हम आम नहीं खास है, पहचान लीजिये ।
पोथी नहीं, इतिहास हैं, पहचान लीजिये ।
क्यारियों में खिल रहे हैं फूल हमीं से,
हम वही मधुमास है, पहचान लीजिये ।
झंडा जहां इकलिंग का फहराता हमेशा,
हम वही कैलाश हैं. पहचान लीजिये ।
बेगम, गुलाम, राजाओं से हम बहुत बड़े,
इक्के वहीं हम ताश के, पहचान लीजिये ।
करता हरीश ' जिन्दगी का राज है यह तो,
हम दूर रहके पास हैं, पहचान लीजिये ।
(३८)
मुझसे आकर चांद-सितारे, जाने क्या-क्या कहते हैं ?
मैं वो हूं खामोश नजारे, जाने क्या-क्या कहते हैं ?
तूफानों से बच निकला हूं, फिर भी जोर लगाता हूं,
हंसकर देखो नदी किनारे, जाने क्या-क्या कहते हैं ?
तुम वो मुझसे हाथ छुड़ाकर और किसी के साथ खड़े,
फिर भी तेरे प्रेम इशारे, जाने क्या-क्या कहते हैं ?
सदियों बुजर गई हैं फिर भी याद तुम्हारी आती है,
वही तुम्हारे यार सहारे, जाने क्या-क्या कहते हैं?
अमृत-पान किया था हमने इक दूजे के चुल्लू से,
गङ्गाजल के यह दो धारे, जाने क्या-क्या कहते हैं ?
प्यार में धोखा खाकर बैठा यह हरीश' ना समझो से.
आज वहीं मेरे हत्यारे, जाने क्या-क्या कहते हैं ?
(३९)
इस जगह से यह अलग कर दीजिये कह रहा हूं यह अलग कर दीजिये
मैं नहीं अब साथ में रह पाऊंगा, इसलिये मुझको अलग कर दीजिये।
साठ सालों तक रहा मैं साथ में, अब मुझे सबसे अलग कर दीजिये।
आपने धोखा दिया है आजतक, इसलिये अबतो अलग कर दीजिये
यह 'हरीश' अब साथ रह सकता नहीं,
कह चुका हूं अब अलग कर दीजिये
(४०)
मुसाफिर हूं मैं तो सफर जिन्दगी है। मिले कोई मंजिल डगर जिन्दगी है।
है रातों से रिश्ता, औं लम्हों से नाता,
खुशी हो या गम हो, सहर जिन्दगी है।
कभी गाँव खेड़ा, कभी जंगलों में, कभी यार मेरी शहर जिन्दगी है।
किसी ने कभी गर इशारा किया वो, वही सिर्फ मेरी नजर जिन्दगी है।
अगर न मिली तू 'हरीश' कह रहा है, वो समझ लो मुझे जहर जिन्दगी है।
(४१)
सब की रोज दीवाली हो।
रात कभी नहीं काली हो ।
फूल खिले हो जीवन में,
चेहरे पर खुशहाली हो ।
अनमिन दीप जलाने को,
रात भले ही काली हो।
बड़े मजे से भैया जी,
संग-संग बजती थाली हो ।
भूखे-प्यासे लोगों के,
सम्मुख भोजन थाली हो ।
वस्त्र, आभूषण-जेवर से,
सजी सदा घरवाली हो ।
कवि 'हरीश' की विनय यही है, भारत-मां बलशाली हो ।
(४२)
जिन्दगी कुछ रोज में उल जायेगी। एक धोखेबाज से छल जायेगी ।
चन्द रोजों में ही याये देखना. दाल उसकी फिर कहीं गल जायेगी ।
बाव कड़वी है. अगर सच्ती भी है. इसलिये ही बाब यह खल आयेगी ।
'मैं नहीं समझा था वाये आज तक. गम की दुनिया ये मुड़ी फल आयेगी।
चाह मेरी देखकर वो देखो करो सारी दुनिया फिन्स आयेगी।
४३)
गीत तो अनगिन सुनाये, अब गजल कहनी पड़ेगी।
जो भी आफत आयेगी वह हमें सहनी पड़ेगी।
सोना-चाँदी, हीरे मोती अब कहां हैं हर कहीं.
फूटी कौड़ी ही फकत अब हाथ में महनी पड़ेगी।
इन महन वालों ने हमको इस तरह से कर दिया.
यह बनी मिट्टी की कुटिया खुद हमें बहनी पड़ेगी।
सूट छोड़ा, अचकनों को रख दिया सन्दूक में,
हां वहीं फाटी कतैया फिर हमें पहननी पड़ेगी।
अब नहीं कपड़े अनेकों जो पहनकर घूम लूँ,
यह अरगनी सदियों पुरानी हमें कतरनी पड़ेगी ।
जिन्दगी के वास्ते 'हरीश ' इतना जान तो लो,
खोदकर हर रोज कुआं तोंद तो भरनी पड़ेगी ।
(४४)
इस जिन्दगी का यारो ये निराला ही ढंग है।
कहीं कोई, कहीं कोई आज इसका रंग है।
है बड़ा ही सत्य लेकिन कटु बहुत है यह,
नहीं आखरी में फिर कोई भी संग है।
कहीं खुशियों की बजे है होठों पे बंशरी,
कहीं गम की खनकती हुई देखो चंग है।
कोई रोटियों को तरसे, कोई छानता है ,
कोई पानी पी रहा है, कोई घोंटता यहां भंग है।
कहीं पैर हैं किसी के तो हाथ नहीं हैं,
कहीं हाथ है सलामत, तो कोई अपंग है।
यह 'हरीश' जिन्दगी का खास है नाटक,
कोई चैन कर रखा है, कोई विल्कुल ही तंग है।