हरिसिंह हरीश की कुछ और रचनाएं व समीक्षा 1
दर्द की सीढ़ियां (ग़ज़ल संग्रह)
हरि सिंह हरीश अपनी युवावस्था के समय से ही लिखने के प्रति बड़े समर्पित रहे हैं। वह कहते थे कि जब वह छठवें क्लास में पढ़ रहे थे तो होमवर्क की कॉपियों पर उपन्यास लिखने लगे थे। दरअसल उन्हें कुशवाहा कांत के उपन्यास पढ़ने का बड़ा शौक था । वे मुरार ग्वालियर में रहते थे और वहां की लाइब्रेरी से किताबें निकालकर खूब पढ़ते थे ।वे जिस मिल के कैंपस में निवास करते थे,उस मिल के मालिक ने भी लाइब्रेरी में अपने खाते से हरीश जी को किताबें निकालने की सुविधा प्रदान कर दी थी । तो एक छोटे से बच्चे में लिखने की इतनी ललक इस कारण पैदा हुई कि वह पढ़ते भी बहुत थे। यह अलग बात है कि पढ़ने उन्हें उतनी कलात्मक ऊंचाई नहीं सिखा पाया, हां नियमित लिखने की प्रेरणा दे गया। वे चाहते थे कि जैसी किताबें लाइब्रेरी में रखी रहती थी, उनकी रखी जाए। बस इसी इच्छा से उन्होंने लिखना शुरू किया। वे अध्यापक रहे पर ड्यूटी से आके नियमित रोज एक न एक रचना लिखते थे, गीत लिखते थे, गजल लिखते थे या मुक्तक लिखते थे, उपन्यास भी लिखते थे। उनके लिखे 40 उपन्यास अप्रकाशित रह गए ।उनके लिखे 10000 गीतों में मुश्किल से 500 भी छप पाए। उनकी 15000 गजलों में मुश्किल से ढाई तीन सौ ही गजल छपिया होगी। मुक्तक तो छपे ही नहीं अब इस पर दुख मनाया नहीं जाना चाहिए, क्योंकि प्रकाशक वही छापेगा जो पाठक मांगेगा छोटे प्रकाशक तो सदा ही अपनी छापी हुई सारी प्रतियाँ लेखक या कवि को ही सौंप देने चाहते हैं, वे ही बेच दें, वे ही बाजार में भेजें । वही लाइब्रेरी में भेजें ।तो हरि सिंह हरि ज्यादा नहीं छपे।
हां फिर भी उनके उनका एक उपन्यास कली भँवरे और कांटे छाप और मन के गीत नमन के अक्षर भजन संग्रह तथा लगभग 10 अन्य किताबें छपी, जिनमे 6 गीत संग्रह और गजल संग्रह भी कहे जा सकते हैं । भले ही वे काव्यशास्त्र के सिद्धांत पर गीत के मानक पर पूरे ना उतरते हो,ग़ज़ल के मानक पर बहुत बड़े ना हो और गजल के चंद्र शास्त्र पर तो वे कतई गजल न हों। लाख ग़ज़ल ना कहलाई जाने वाली रचनाओं के संग्रह हो । तो ऐसे कभी रचयिता को श्रद्धांजलि स्वरुप में उनकी कुछ रचनाएं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं
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भेड़ियों के देश में नाहर अकेला क्या करे ?
जेल में हों शेर सारे, बाहर अकेला क्या करे ?
रहबरों ने नोच खाया, देश को अपने यहां,
यह बात सब ही जानते, जाहिर अकेला क्या करे ?
जिस बज्म में सुन चुटकुले बजने लगी हो तालियां,
उस जगह गजलें सुना शायर अकेला क्या करे ?
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सब की रोज दीवाली हो।
रात कभी नहीं काली हो ।
फूल खिले हो जीवन में,
चेहरे पर खुशहाली हो ।
भूखे-प्यासे लोगों के,
सम्मुख भोजन थाली हो ।
कवि 'हरीश' की विनय यही है, भारत-मां बलशाली हो ।
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किस तरह गरमा रही है. आजकल ठंडी सड़क ? ।
मन ही मन घबरा रही है आजकल ठंडी सड़क ।
आ नहीं बेटे यहां पर, कहना मेरा मानले,
यह मुझे समझा रही है, आजकल ठंडी सड़क ।
चार दिन से देखियें 'हरीश' गुमसुम सा रहे
आदमी मरवा रही है, आजकल ठंडी सड़क ।
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भूमिका
हिन्दी ग़ज़ल वर्तमान समय में साहित्य की एक लोकप्रिय विधा बन चुकी है एवं बहुत बड़ी संख्या में लोग हिन्दी ग़ज़लें लिख रहे हैं। हिन्दी ग़ज़ल ने बहुत कम समय में साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। इसका इतिहास अधिक पुराना नहीं है। भारत में सर्वप्रथम ग़ज़ल की रचना ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने की। उन्होनें फारसी और भारतीय भाषाओं में बहुत बड़ी संख्या में गज़लें लिखी हैं। इसके बाद एक लम्बे समय तक देश में ग़ज़लकारों का अभाव सा रहा। उर्दू साहित्य में मीर के प्रवेश के साथ ही ग़ज़लों का एक युग आरंभहुआ। यही कारण है कि मीर को ग़ज़ल का सम्राट कहा जाता है। मीर के बाद ग़ालिब ने ग़ज़ल परम्परा को आगे बढ़ाया और इसे अभिनव ऊंचाई प्रदान की, किन्तु ग़ालिब ने भी मीर के महत्व को स्वीकार किया है।
हिन्दी कवियों में ग़ज़लों की रचना करने वाले पहले साहित्यकार थे-भारतेन्दु हरिश्चंद्र। भारतेन्दु ने खड़ी बोली में ग़ज़लें लिखीं, किन्तु उन्हें ग़ज़लों के क्षेत्र में अधिक सफलता नहीं मिली। हिन्दी सात्यिकारों में जयशंकर प्रसाद, रामधारी सिंह दिनकर, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' आदि कवियों ने भी अपने काव्य में गज़ल शैली को अपनाया एवं इसे एक दिशा प्रदान की।
उर्दू और फारसी शैली की ग़ज़ल को साहित्यकारों ने एक नया आधार प्रदान किया एवं इसमें नये-नये विषयों को सम्मिलित करके व्यापक रूप दिया, अतः हिन्दी ग़ज़ल का बड़ी तेजी से विकास हुआ। हिन्दी ग़ज़ल को एक ओर दुष्यन्त कुमार ने लोकप्रियता के चरम पर पहुंचाया तो दूसरी ओर कमलेश्वर ने नये-नये गजलकारों को मंच प्रदान कर इसका विस्तार किया ।
हिन्दी ग़ज़लों ने जहां हिन्दी साहित्यकारों के बहुत बड़े वर्ग को आकर्षित किया और उन्हें नये-नये विषयों पर ग़ज़ल लिखने की प्रेरणा दी वहीं कुछ साहित्यकारों ने इसका प्रबल विरोध भी किया। इस प्रकार के साहित्यकारों ने गजल को एक विदेशी साहित्यिक विधा कह कर इसकी कटु आलोचना भी की इस आलोचना और विरोध के बाद भी हिन्दी ग़ज़ल आगे बढ़ी और यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि बीसवीं सदी के अन्त तक हिन्दी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल से भी आगे निकल गयी। इसका प्रमुख कारण था विषयों की विविधता। उर्दू ग़ज़ल आज भी इश्क, हुस्न और इसी प्रकार के पारम्परिक विषयों से अपने को मुक्त नहीं कर पायी है, जबकि हिन्दी ग़ज़ल प्रेम, भक्ति आदि के साथ ही समसामयिक सामाजिक विषयों को साथ लेकर चल रही है। वर्तमान समय में चन्द्रसेन विराट, कमलकान्त सक्सैना, रोहिताश्व अस्थाना, सत्यनारायण शर्मा, साकेत सुमन चतुर्वेदी, राजा चौरसिया, उषा यादव, महाश्वेता चतुर्वेदी, गणेशदत्त सारस्वत, शशि जोशी, अवध किशोर सक्सैना, कुंवर बेचैन आदि स्तरीय गजलकार हिन्दी ग़ज़लों का सृजन कर रहे हैं। इन्ही ग़ज़लकारों में एक नाम है हरिसिंह 'हरीश' ।
हरिसिंह हरीश बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार हैं आपने ग़ज़लों के साथ ही हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं पर लेखनी चलायी है। तथा उपन्यास, कहानी, एकांकी आदि सब कुछ लिखा है, किन्तु म
मूलतः आप एक सहृदय कवि हैं, अतः इन ग़ज़लों की रचना में आपको विशेष रूप से सफलता मिली है। 'हरीश ने प्रेम, नारी सौन्दर्य, गरीबी, राजनैतिक भ्रष्टाचार, नैतिक पतन आदि विषयों को अपनी ग़ज़लों का आधार बनाया है।
आज का मानव नैतिकता से दूर होता जा रहा है। भौतिकवादी विचारधारा और धन के बढ़ते हुए प्रभाव ने मानव का पूरी तरह व्यक्तिवादी बना दिया है। धन कमाने के लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार है। यही कारण है कि अब ठिकाने का आदमी नज़र नहीं आता है-
देखा है किसने आज जमाने में आदमी ।
हमको नज़र न आया ठिकाने में आदमी ।
चारों तरफ जहान में चर्चा इसी की है,
मुस्तैद है जनाब कमाने में आदमी ।
भारत को आज़ादी प्राप्त किये हुए आधी सदी से अधिक बीत गई है, किन्तु आज़ादी के पहले आम लोगों ने जो सपने देखे थे, वे अभी तक सपने ही हैं। आधुनिक भारत में एक ओर भ्रष्टाचार का सहारा लेकर एक वर्ग विलासिता पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है, दूसरी ओर गरीब की गरीबी और बढ़ी है। वह शिक्षा और शासन के दुरूह क़ानूनों की बात सोच ही नहीं सकता। उसे तो हर वक्त दो रोटियों की चिन्ता सताती रहती है-
हम गरीबों के यहां पोथी नहीं कानून की।
फिक्र हमको रहती है, नून, लकड़ी, चून की।
भ्रष्टाचार का एक समाजशास्त्र होता है। भ्रष्टाचार हमेशा ऊपर से नीचे आता है। यदि किसी परिवार का मुखिया भ्रष्ट है, तो उस परिवार को बर्बाद होने से कोई नहीं बचा सकता। यही स्थिति देश की है। देश का शासन चलाने वाले नेताओं की अपराधियों, कालेधन के व्यापारियों और असामाजिक तत्वों से सांठगांठ है। नौकरशाही में इन्ही की मेहरबानी से भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। बेचारी जनता उन्हीं को अपना सबकुछ मानने के लिए विवश है, जो उसके सबसे बड़े शोषक है। देश और जनता की सेवा करने वाले बहुरूपिये कब ? कौन सा रूप धारण कर लेंगे? कोई नहीं जानता। ये अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
इनके दिल की दोस्तों गहराई ले सकते नहीं,
कब उठादें देश में किस बात का तूफान ये ।
हरीश ने इसी प्रकार की अनेक सामाजिक समस्याओं को अपनी ग़ज़लों का आधार बनाया है और कभी व्यंग्य के माध्यम से इन पर प्रहार किया है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हरीश की ग़ज़लों में प्रेम का अभाव है। प्रेम तो ग़ज़ल का प्राण तत्व है। गीत हो या ग़ज़ल प्रेम के बिना सब कुछ अधूरा है -
मैं अकेला रात को सोता नहीं हूं चैन से,
उस हसीना को मेरी चाहत की बू आने लगी ।
निष्कर्षतः हरीश की ग़ज़लों में जीवन के सभी रंग मौजूद हैं, अतः इन ग़ज़लों को रंग बिरंगे फूलों का गुलदस्ता कहा जा सकता है। इन ग़ज़लों में सामयिक ज्वलंत समस्याओं गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, गुण्डागर्दी, भाई-भतीजावाद आदि को मुख्य आधार बनाया गया है। एवं इनके बड़े सजीव चित्र खींचे गए हैं। ये ग़ज़लें समाज के ठेकेदारों के लिए एक दर्पण के समान हैं, जिसमें वे अपना वास्तविक बिम्ब देख सकते हैं। 'हरीश' की ग़ज़लें जीवन के बहुत निकट हैं। ग़ज़लकारों ने जीवन की वास्तविक समस्याओं को बहुत निकट से देखा है और भोगा है। सम्भवतः यही कारण है कि 'हरीश' की ग़ज़लों में बड़ी सजीवता और वास्तविकता दिखाई देती है। व्यक्ति और समाज के मध्य घटित होने वाले जीवन के विभिन्न पक्ष का इतना सजीव और यथार्थ चित्रण एक भुक्तभोगी ही कर सकता - है। 'हरीश' की ग़ज़लें आधुनिक समाज के सामान्य व्यक्ति के जीवन का प्रतिनिधित्व करर्ती हैं। इसके साथ ही इन ग़ज़लों में आम जनता के लिए एक संदेश है, एक चेतावनी है और एक आदर्श है, जो उसे भटकाव के रास्ते से निकाल सकता है और मानवता का मसीहा बना सकता है।
डॉ. परशुराम शुक्ल
100, पंचशील नगर, सिविल लाइंस, दतिया (म.प्र.) 475661
(१)
राधा का कृष्ण काला पीने में मस्त है।
पी-पी के देखियेगा जीने में मस्त है।
घर-द्वार पर टगीं हैं दारू की बोतलें, दारू का ज्वार इसके सीने में मस्त है।
घरवाली पी रही है चौके में बैठकर, घरवाला पी के देखो पसीने में मस्त है।
मल्लाह को भी देखो तूफां का डर नहीं,
पी-पी के वो भी देखो सफ़ीने में मस्त है।
मंदिर में पी रहे हैं देखो महन्तजी, मुल्ला भी पी के देखो मदीने में मस्त है।
जब से 'हरीश' को भी पीने की लत पड़ी,
पी-पी के वो भी सारे महीने में मस्त है।
(२)
वो गजल पढ़ रहे हैं याकि मरसिया, मेरा सीना दर्द से जो भर दिया ।
मुझको दाद देने की जरुरत है नहीं, मैं लिख रहा हूं दोस्तो सब शौकिया
क्यों आप मुझसे पूछते अक्सर यही,
आपने श्रीमान यूं कैसे जिया ?
गजलों की मेरी थथोला भी कीजिये,
शायद मिल जाये कहीं पर क़ाफ़िया
छपने जब भी भेजता अपनी गजल,
छोड़कर रखता बहुत सा हासिया ।
आप सुनकर दाद जो देंगे मुझे, अदा करूंगा आपका मैं शुक्रिया ।
मेरा दिल तो इक खिलौना है हरीश,
आपने जो खेलने को ले लिया
(३)
मान्यवर हमने ये सारा ही कथानक पढ़ लिया ।
बहरोदा, बे-सबब, बल्कि अचानक पढ़ लिया।
आदमी के दिल में क्या है, क्या करेगा आज यह ?
उसका चेहरा भांपकर मैंने यहां तक पढ़ लिया ।
जो हमेशा पी रहे हैं हालात का मीठा जहर,
उनको तुमने आज तक बोलो कहां तक पढ़ लिया ?
कुछ समय पहले दिए थे आपने जो कुछ रुपये,
उसको लेने के लिये क्यों यह मकां तक पढ़ लिया ?
मैं तुम्हारा हूं नहीं, मरने के पहले आपने,
मेरे चेहरे का पुराना वह निशां तक पढ़ लिया ।
ये ही चेहराहै 'हरीश' का अब कहे जाते वो,
बाद मरने के मेरे यह मसा तक पढ़ लिया।
(४)
दो जून रोटी के लिये इंसान बागी हो गया ।
अच्छा-खासा देखिये इंसान दागी हो गया ।
दूसरे लोगों का हिस्सा चैन से खाता रहा,
देखिये किस तरह इंसान त्यागी हो गया ?
पुन्य करता जा रहा था आज तक संसार में,
पाप का फिर किसलिये इंसान भागी हो गया ?
प्यार की पींगे भरा करता था जो हर रोज ही,
आज क्यों फिर नफ़रतों का इंसान रागी हो गया ?
जो हिमालय की तरह शीतल था अपने आप में,
फिर भला क्यों ज्वालामुखी की इंसान आगी हो गया ?
नफ़रतें करता रहा कितने दिनों तक ये 'हरीश',
आपका साथ मिला तो ये भी अनुरागी हो गया
(५)
महलों से ऊब ऊब कर राजे निकल पड़े।
खा-खाके माल खूब ये ताजे निकल पड़े।
दिल्ली की ओर भागते सब आ रहे नजर,
कहीं रानी निकल पड़ी, कहीं राजे निकल पड़े।
नारों से हिला डाला है आकाश सभी ने,
शोरों में शोर करते ये बाजे निकल पड़े।
कई कत्ल कई डकैतियां डलवाई हैं इन्होंने ,
घर-द्वार से ये देखिये भाजे निकल पड़े।
क्या-क्या पढाये आपको शायर 'हरीश' ये,
क्या शान से मोटर में विराजे निकल पड़े।
(६)
नफ़रत से शहर भर गया खाली कराईये,
खाली कराईये जनाबे आली कन्यईये ।
देखो शहर की सड़कों की हालत हुई खराब,
गन्दी हैं कब से साफ ये नाली कराईये ।
विज्ञापनों ने हर जगह अड्डा जमा लिया,
यूं दीवार हर किसी की न काली कराईये ।
होली में खूब नालियां सड़कों पे आ बिछीं,
कहीं ऐसी ही नहीं जनाब दीवाली कराईये ।
शोरों की इन्तहा है अब तो जहान में,
शामिल न इनमें खुशियों की ताली कराईये ।
फूलों के लिये हमने बगीचे लगाये हैं.
फूलों से जुदा काँटों की डाली कराईये ।
बाजारों में ही हर कहीं फैली है गन्दगी,
साहब । नहीं अब ऐसी कव्वाली कराईये ।
रूठा हुआ जमाना रहे चाहे 'हरीश' से.
लेकिन न रुस्वा उसकी घरवाली कराईये
(७)
महलों के रंग ढंग से नाराज झोपड़ी,
क्योंकि लगा चुकी है अन्दाज झोपड़ी ।
हैं महलों की रौनके तो बरकरार अभी तक,
पर वीरान हुई और भी ये आज झोपड़ी ।
खाने के लिये रोटी न तनको चीथड़े, फिर क्यों नहीं लगायेगी आवाज झोपड़ी ?
सोना नहीं ये चाहे, चांदी नहीं ये चाहे,
नहीं चाहती है देखिये ये ताज झोपड़ी ।
आए हैं महल वाले गुदड़ी को छींनने,
जाने कभी न देगी ये लाज झोपड़ी
दुनियां में घूम घूम के सबको बतायेगी,
महलों के बता देगी सब राज झोपड़ी ।
जाने 'हरीश' सब कुछ महलों की तिकड़में,
जबसे बनी है उसकी हमराज झोपड़ी ।
(6)
भेड़ियों के देश में नाहर अकेला क्या करे ?
जेल में हों शेर सारे, बाहर अकेला क्या करे ?
रहबरों ने नोच खाया, देश को अपने यहां,
यह बात सब ही जानते, जाहिर अकेला क्या करे ?
बन गए हिजड़े जो कहते थे, चला दो गोलियां,
बाकी सारे हैं अनाड़ी , माहिर अकेला क्या करे ?
दनदनाती आ रही हर ओर से जहां गोलियां,
उस जगह पर कोई इक, फायर अकेला क्या करे ?
जिस बज्म में सुन चुटकुले बजने लगी हो तालियां,
उस जगह गजलें सुना शायर अकेला क्या करे ?
(९)
क्यों जोतते हो, ये तो बंजर जमीन है ?
जिसने तुम्हें गहा दी, वह तो कमीन है।
मालूम तुम्हें है नहीं ये वो ही शख्स है,
सरकारी मुलाजिम है, पद का अमीन है।
उसको नहीं मालूम था कि भारत है मेरा नाम,
पर ये मुझे मालूम है. ये नापाक चीन है।
सीने में गोली मार कर उसको सुला दिया,
कुछ लोग कह रहे थे, क्या अच्छा सीन है ?
भूखा है सात दिन से ये बस्ती में बेचारा,
नंगे बदन है देखो ये कितना दीन है ?
कल जिसने छलाँग मारी थी मीनार पे चढ़कर,
वह मेरा दोस्त यारो अल्लादीन है।
सुन करके आप दाँतों तले उंगली दबायेंगे,
यह तीन सौ सात का किस्सा नवीन है।
तुम जिसको कह रहे हो बेकार आदमी,
वह कवि 'हरीश' सबसे यहां बेहतरीन है।
(१०)
करें नाक में दम, ये अपने ही लोग । किंचित हो न नम, ये अपने ही लोग
शायद ऐसा, शायद वैसा हो सकता है यार,
डालें मन में भ्रम, ये अपने ही लोग
लेकर दिल तड़पाते हमको जीवन में भरपूर,
खूब दे रहै गम, ये अपने ही लोग ।
मन में राम बगल में छुरियां रखते यही सदा,
नहीं किसी से कम, ये अपने ही लोग ।
दिलो जान से हरदम चाहे इनको यार 'हरीश',
ढाते मगर सितम, ये अपने ही लोग
(११)
कातिल के हाथ में भरी बन्दूक हुए लोग ।
बेगुनाह की लाश का भरा सन्दूक हुए लोग ।
मरघटों के पेड़ के उलूक हुए लोग, दर्दो-गम-कराह की हूक हुए लोग ।
काँटों भरे बाग के रूख हुए लोग । मंहगाई में गरीब की भूख हुए लोग
डर से जमे गले का थूक हुए लोग । पहले-पहले प्यार की चूक हुए लोग
आशिक के लिये देखिये माशूक हुए लोग ।
अन्धों का कोई निशाना अचूक हुए लोग ।
जादू-टोना वाली इक फूक हुए लोग,
आजकल के लड़कों का सलूक हुए लोग ।
कहता रहा 'हरीश' मगर मूक हुए लोग ।
किसी गहरी चोट से दो-टूक हुए लोग ।
(૧૨)
सारा शहर खामोश है, यह हादसा क्या है ?
हर आदमी मदहोश है, यह हादसा क्या है?
मिलने लगा है हर नशा करने के वास्ते,
हर आदमी बेहोश है, यह हादसा क्या है ?
जिस जगह भी पानी को खोदा गया कुआं,
बोही जगह क्यों ठोस है, यह हादसा क्या है ?
उस पर उसी के दोस्त ने गोली चलाई है,
यह कैसा उसका जोश है, यह हादसा क्या है ?
कोई किसी से आजकल डरता नहीं 'हरीश',
यह कैसा सब का होश है, यह हादसा क्या है
(१३)
बेजान कुर्सियों ने लड़ाये हैं आदमी जेलों में ठूस-ठूस सड़ाये हैं आदमी
लोगों की सिर्फ शान है कुर्सी पे बैठना,
इस शान ने ही यार मिटाये हैं आदमी ।
कम्बख्त टूटती ही नहीं एकाध पैर से,
जिसने कि उँगलियों पे नचाये हैं आदमी ।
संसद में इनका दोस्तो गुस्सा तो देखिये,
जूते तलक भी लड़ने उठाये हैं आदमी ।
वोटों के वक़्त शान से घर-घर घुमा रहीं,
मंचों पर कितना शोर मचाये हैं आदमी ।
अदने 'हरीश' जैसे कितने ही देश में,
इन कुर्सियों ने देखो फसाये हैं आदमी ।
(१४)
ये आदमी कर रहा कैसा तमाशा आजकल ?
महफ़िलों में नाचता देखो खुलासा आजकल ।
भूलकर इतिहास अपने बाप-दादों का सभी,
याद तक करता नहीं उनको जरा सा आजकल ।
पढ़ गया है कुछ किताबें तो समझता हम बड़े,
खुद को वो सोना समझता, सबको कांसा आजकल ।
सच कहा है यह किसी ने, घोर कलयुग आ गया.
जो बोलता माँ-बाप से यह भौंड़ी भाषा आजकल ।
कुछ लोग अपने देश में क्या ज्ञाता का ढोंग करते,
जो जानते तक हैं नहीं तोला-माशा आजकल ।
क्या करे 'हरीश' बोलो शायरी इस दौर में,
देखकर यह माजरा है उदासा आजकल ।
(१५)
गहराईयों में डूबो, जीवन की दोस्तो,
यूं धज्जियाँ उड़ादो, उलझन की दोस्तो ।
काँटों को रौंद डालो, अपने क़दम बढ़ाके,
खुश्बू तमाम ले लो, गुलशन की दोस्तो ।
अबको दुआयें दे दो मन अपना खोलकर,
झड़ियाँ लगादो जमकर, पानी की दोस्ती ।
फैला रहे जो बदबू यहां मन-मुटाव की,
सौगंध उन्हें दे दो इस वतन की दोस्तो ।
तन की न ओर देखो, तन नाशवान है,
समझो जरा ये बातें, इस मन की दोस्तो ।
भारत है देश ऐसा, जिसमें हुए हैं दानी,
हां, थोड़ा वो याद करलो उन जन को दोस्तो ।
तेरा 'हरीश' होगा, तेरे सामने किसी दिन,
थोड़ी करो प्रतीक्षा, उस दिन की दोस्तो ।
(१६)
घर कांच के बने हैं,पत्थर न मारिये। तुम देखते हो बेशक, हंसकर न मारिये ।
लगते हैं कितने सुन्दर, यह देखने में यारो,
पत्थर उछाल करके, तककर न मारिये ।
इनमें ही रहने वाले तकते हैं हर किसी को,
इन्हें यूं जरा चिढ़ाने, कंकर न मारिये
ये हैं बड़े ही नाजुक, इन्हें पुख्ता न समझना,
कभी होकर नाराज इनको हन्टर न मारिये ।
कुछ इनमें रहने वाले परियों की तरह होते,
इन्हें चाहने की खातिर, मन्तर न मारिये ।
होकर के फिर रहा है दीवाना 'हरीश' इनका,
ये बाहर नहीं निकलते, इन्हें घर न मारिये ।
(१७)
पत्थर के लोग हैं ये कांचों की बस्तियाँ ,
ठोकर से मिटा देते ये सारी हस्तियाँ
तूफान में घिरे हैं, अब बच नहीं सकेंगे,
पानी से भर गई हैं ये सारी कश्तीयाँ ।
रोका था जमाने ने यही कहके दोस्तो,
अच्छी नहीं होती हैं ये इतनी मस्तियाँ ।
अभी जिन्दगी पड़ी है, आगे पहाड़ जैसी,
अभी वक़्त है सुधारो ये अपनी गलतियाँ ।
भोपाल ये नहीं है, दिल्ली भी ये नहीं,
संसद से बड़ी होती ये अपनी गृहस्थियाँ ।
गजलों से सजाये है महफ़िल 'हरीश' अपनी,
बजतीं हैं खूब सुनके महफ़िल में तालियाँ ।
(१८)
रास्ता है आम यारो, काँटे न डालिये
ये सब गरीब हैं इन्हें घाटे न डालिये
माना है भूखे बच्चे कालू कुम्हार के, चूहों की दवा इनके आटे न डालिये
बरसों से भूखे लोग हैं इस देश में अपने,
उनको दिखा-दिखाके पराठे न डालिये ।
कितनों दिनों से राम भी वो सो नहीं सका,
उसके ही पास लेट खर्राटे न डालिये ।
अभी चन्द लम्हे पहले तूफां से ये बचा,
फिर उसको भी डराने ज्वार-भाटे न डालिये ।
सीता ने व्रत रखा था कल निर्जला ग्यास का,
अब भरने उसी के हिस्से पाटे न डालिये ।
अभी नादान है ये बच्चा, कुछ जानता नहीं,
उसके फूल से गालों पर चांटे न डालिये ।
मर-मरके जी रहा है देखो 'हरीश' ये,
अब सर्पों के उसके सामने काटे न डालिये ।
(१९)
ये मेरा गाँव है, ये मेरा गांव है। कौवों की तरह होती यहां कांव-कांव है।
हाथों से चल रहे हैं, यहां सारे आदमी,
कहने के लिए इनके दोनों ही पाँव हैं।
आमों के बाग इनको भाते ही नहीं हैं,
हर घर के आगे देखो पीपल की छाँव है।
रहते यहाँ लुटेरे अस्मत को लूटने, यहां आदमी का देखो उल्टा ही भाव है।
हैवान बन गए हैं इंसान यहां के, इंसानियत का इनमें पूरा अभाव है।
कहने को यहां कोई सागर नहीं 'हरीश',
पर बैठने को सबको कागज की नाव है।
(२०)
जिन्दगी खामोश है, तन्हाईयों का शुक्रिया ।
मैं भटकता फिर रहा, परछाईयों का शुक्रिया।
डूबकर जाने कहां पर खो गई मेरी खुशी,
थाह भी मिलती नहीं, गहराईयों का शुक्रिया।
बज रहीं हैं दूर वो एहसास होता है मुझे,
तुम पराई हो गई, शहनाईयों का शुक्रिया ।
मैं फिसलकर खूब नीचे आ गया हूं देखिये,
पास तेरे आ न पाया, काईयों का शुक्रिया।
है बड़ा अपना मकां पर टुकड़े-टुकड़े हो गया,
इक जगह न रह सके हम, भाईयों का शुक्रिया ।
क्यों भला हम तुम मिले थे, उस जगा बोलो 'हरीश',
जिस जगा फिर आ न पाए, अमराईयों का शुक्रिया।