इस अध्याय में दो कथाओं का वर्णन है :
(१) बाबा किस प्रकार श्रीमान् देव की माँ के यहाँ उद्यापन में सम्मिलित हुए। और (२) बाबा किस प्रकार होली त्योहार के भोजन समारोह के अवसर पर बाँद्रा में हेमाडपंत के गृह पधारे।
प्रस्तावना
श्री साई समर्थ धन्य हैं, जिनका नाम बड़ा सुन्दर है! वे सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही विषयों में अपने भक्तों को उपदेश देते हैं और भक्तों को अपना जीवनध्येय प्राप्त करने में सहायता प्रदान कर उन्हें अपनी शक्ति प्रदान करते हैं। वे भेदभाव की भावना को नष्ट कर उन्हें अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति कराते है। भक्त लोग साई के चरणों पर भक्तिपूर्वक गिरते हैं और श्री साईबाबा भी भेदभावरहित होकर प्रेमपूर्वक भक्तों को हृदय से लगाते हैं। वे भक्तगण में ऐसे सम्मिलित हो जाते हैं, जैसे वर्षाऋतु में जल नदियों से मिलता तथा उन्हें अपनी शक्ति और मान देता है।
श्रीमती देव का उद्यापन उत्सव
श्री. बी. व्ही. देव डहाणू (जिला ठाणे) में मामलतदार थे। उनकी माता ने लगभग पच्चीस या तीस व्रत लिये थे, इसलिये अब उनका उद्यापन करना आवश्यक था। उद्यापन के साथ-साथ सौ-दो-सौ ब्राह्मणों का भोजन भी होने वाला था। श्री देव ने एक तिथि निश्चित कर बापूसाहेब जोग को एक पत्र शिरडी भेजा। उसमें उन्होंने लिखा कि, “तुम मेरी ओर से श्री साईबाबा को उद्यापन और भोजन में सम्मिलित होने का निमंत्रण दे देना और उनसे प्रार्थना करना कि उनकी अनुपस्थिति में उत्सव अपूर्ण ही रहेगा। मुझे पूर्ण आशा है कि वे अवश्य डहाणू पधार कर दास को कृतार्थ करेंगे।” बापूसाहेब जोग ने बाबा को वह पत्र पढ़कर सुनाया। उन्होंने उसे ध्यानपूर्वक सुना और शुद्ध हृदय से प्रेषित निमंत्रण जानकर वे कहने लगे कि, “जो मेरा स्मरण करता है, उसका मुझे सदैव ही ध्यान रहता है। मुझे यात्रा के लिए कोई भी साधन गाड़ी, ताँगा या विमान की आवश्यकता नहीं है। मुझे तो जो प्रेम से पुकारता है, उसके सम्मुख मैं अविलम्ब ही प्रगट हो जाता हूँ।” उसे एक सुखद पत्र भेज दो कि मैं, और दो व्यक्तियों के साथ अवश्य आऊँगा। जो कुछ बाबा ने कहा था, जोग ने श्री देव को पत्र में लिखकर भेज दिया। पत्र पढ़कर देव को बहुत प्रसन्नता हुई, परन्तु उन्हें ज्ञात था कि बाबा केवल राहाता, रुई और नीमगाँव के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं जाते है। फिर उन्हें विचार आया कि उनके लिये क्या असंभव है ? उनकी जीवनी अपार चमत्कारों से भरी हुई है। वे तो सर्वव्यापी हैं। वे किसी भी वेश में अनायास ही प्रगट होकर अपना वचन पूर्ण कर सकते हैं।
जो उद्यापन के दिन पूर्व एक संन्यासी डहाणू स्टेशन पर उतरा, कुछ बंगाली संन्यासियों के समान वेशभूषा धारण किये हुये था। दूर से देखने में ऐसा प्रतीत होता था कि वह गौरक्षा संस्था का स्वयंसेवक है। वह सीधा स्टेशनमास्टर के पास गया और उनसे चंदे के लिये निवदेन करने लगा। स्टेशनमास्टर ने उसे सलाह दी कि तुम यहाँ के मामलेदार के पास जाओ और उनकी सहायता से ही तुम यथेष्ट चंदा प्राप्त कर सकोगे। ठीक उसी समय मामलेदार भी वहाँ पहुँच गए। तब स्टेशन मास्टर ने संन्यासी का परिचय उनसे कराया और वे दोनों स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर बैठे वार्तालाप करते रहे। मामलेदार ने बताया कि यहाँ के प्रमुख नागरिक श्री रावसाहेब नरोत्तम सेठ ने धर्मार्थ कार्य के निमित्त चन्दा एकत्र करने की नामावली बनाई है। अतः अब एक और दूसरी नामावली बनाना कुछ उचित सा प्रतीत नहीं होता। इसलिये श्रेयस्कर तो यही होगा कि आप दो-चार माह के पश्चात् पुनः यहाँ दर्शन दें। यह सुनकर संन्यासी वहाँ से चला गया और एक माह पश्चात् श्री देव के घर के सामने ताँगे से उतरा। तब उसे देखकर देव ने मन ही मन सोचा कि वह चन्दा माँगने ही आया है। उसने श्री देव को कार्यव्यस्त देखकर उनसे कहा, “श्रीमान्! मैं चन्दे के निमित्त नहीं, वरन् भोजन करने के लिये आया हूँ।” देव ने कहा “बहुत आनन्द की बात है, आपका सहर्ष स्वागत है।”
संन्यासी: मेरे साथ दो बालक और हैं।
देव: तो कृपया उन्हें भी साथ ले आइये।
भोजन में अभी दो घण्टे का विलम्ब था। इसलिये देव ने पूछा: यदि आज्ञा हो तो मैं किसी को उनको बुलाने को भेज दूँ। संन्यासी: आप चिंता न करें, मै निश्चित समय पर उपस्थित हो जाऊँगा। देव ने उनसे दोपहर में पधारने की प्रार्थना की। ठीक १२ बजे दोपहर को तीनों वहाँ पहुँचे और भोज में सम्मिलित होकर भोजन करके वहाँ से चले गए।
उत्सव समाप्त होने पर देव ने बापूसाहेब जोग को पत्र में उलाहना देते हुए बाबा पर वचन-भंग करने का आरोप लगाया। जोग वह पत्र लेकर बाबा के पास गए, परन्तु पत्र पढ़ने के पूर्व ही बाबा उनसे कहने लगे “अरे! मैंने वहाँ जाने को वचन दिया था तो मैंने उसे धोखा नहीं दिया। उसे सूचित करो कि मैं अन्य दो व्यक्तियों के साथ भोजन में उपस्थित था, परन्तु जब वह मुझे पहचान ही न सका, तब निमंत्रण देने का कष्ट क्यों उठाया था? उसे लिखो कि उसने सोचा होगा कि वह संन्यासी चन्दा माँगने आया है। परन्तु क्या मैंने उसका सन्देह दूर नहीं कर दिया था कि दो अन्य व्यक्तियों के साथ मैं भोजन के लिये आऊँगा, और क्या वे त्रिमूर्तियाँ ठीक समय पर भोजन में सम्मिलित नहीं हुईं ? देखो! मैं अपना वचन पूर्ण करने के लिये अपना सर्वस्व निछावर कर दूँगा। मेरे शब्द कभी असत्य न निकलेंगे।” इस उत्तर से जोग के हृदय में बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने पूर्ण उत्तर लिखकर देव को भेज दिया। जब देव ने उत्तर पढ़ा तो उनकी आँखो से अश्रुधाराएँ प्रवाहित होने लगीं। उन्हें अपने आप पर बड़ा क्रोध आ रहा था कि मैंने व्यर्थ ही बाबा पर दोषारोपण किया। वे आश्चर्यचकित से हो गए कि किस तरह मैंने संन्यासी की पूर्व यात्रा से धोखा खाया, जो कि चन्दा माँगने आया था और संन्यासी के शब्दों का अर्थ भी न समझ पाया कि “अन्य दो व्यक्तियों के साथ मैं भोजन पर आऊँगा।”
इस कथा से विदित होता है जब भक्त अनन्य भाव से सद्गुरु की शरण में आता है, तभी उसे अनुभव होने लगता है कि उसके सब धार्मिक कृत्य उत्तम प्रकार से चलते हैं और निर्विघ्न समाप्त होते हैं।
हेमाडपंत का होली त्योहार पर सहभोज
अब हम एक दूसरी कथा लें, जिसमें बतलाया गया है कि बाबा ने किस प्रकार चित्र रूप में प्रगट होकर अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण की।
सन् १९१७ में होली पूर्णिमा के दिन हेमाडपंत को एक स्वप्न हुआ। बाबा उन्हें एक संन्यासी के वेश में दिखे और उन्होंने हेमाडपंत को जगाकर कहा कि, “मैं आज दोपहर को तुम्हारे यहाँ भोजन करने आऊँगा।” जागृत करना भी स्वप्न का एक भाग ही था। परन्तु जब उनकी निद्रा सचमुच मे भंग हुई तो उन्हें न तो बाबा और न ही कोई अन्य संन्यासी ही दिखाई दिया। वे अपनी स्मृति दौड़ाने लगे और अब उन्हें संन्यासी के प्रत्येक शब्द की स्मृति हो आई। यद्यपि वे बाबा के सान्निध्य का लाभ गत सात वर्षों से उठा रहे थे तथा उन्हीं का निरंतर ध्यान किया करते थे, परंतु यह कभी भी आशा न थी कि बाबा भी कभी उनके घर पधारकर भोजन कर उन्हें कृतार्थ करेंगे। बाबा के शब्दों से अति हर्षित होते हुए वे अपनी पत्नी के पास गए और कहा कि “आज होली का दिन है। एक संन्यासी अतिथि भोजन के लिए अपने यहाँ पधारेंगे। इसलिये भात थोड़ा अधिक बनाना।” उनकी पत्नी ने अतिथि के सम्बन्ध में पूछताछ की। प्रत्युत्तर में हेमाडपंत ने बात गुप्त न रखकर स्वप्न का वृत्तांत सत्य-सत्य बतला दिया। तब वे सन्देहपूर्वक पूछने लगीं कि क्या यह भी कभी संभव है कि वे शिरडी के उत्तम भोजन त्यागकर इतनी दूर बान्द्रा में अपना रूखा-सूखा भोजन करने को पधारेंगे ? हेमाडपंत ने विश्वास दिलाया कि उनके लिये क्या असँभव है ? हो सकता है, वे स्वयं न आएं और कोई अन्य स्वरूप धारण कर यहाँ पधारें। इस कारण थोड़ा अधिक भात बनाने में हानि ही क्या है? इसके उपरान्त भोजन की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गईं।
होलिका पूजन प्रारम्भ हो गया और पत्तलें बिछाकर उनके डाल दी गईं। दो पंक्तियाँ बनाई गईं और बीच में अतिथि के लिए स्थान छोड़ दिया गया। घर के सभी कुटुम्बी-पुत्र, नाती, लड़कियाँ, दामाद इत्यादि ने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया और भोजन परोसना भी प्रारम्भ हो गया। जब भोजन परोसा जा रहा था तो प्रत्येक व्यक्ति उस अज्ञात अतिथि की उत्सुकतापूर्वक राह देख रहा था। जब मध्याह्न भी हो गया और कोई भी न आया, तब द्वार बन्द कर साँकल चढ़ा दी गई। अन्न शुद्धि के लिये घृत वितरण हुआ, जो कि भोजन प्रारम्भ करने का संकेत है। वैश्वदेव (अग्नि) को औपचारिक आहुति देकर श्रीकृष्ण को नैवेद्य अर्पण किया गया फिर सभी लोग जैसे ही भोजन प्रारम्भ करने वाले थे कि इतने में सीढ़ी पर किसी की आहट स्पष्ट आने लगी। हेमाडपंत ने शीघ्र उठकर साँकल खोली और दो व्यक्तियों (१) अली मुहम्मद और (२) मौलाना इस्मू मुज़ावर को द्वार पर खड़े हुए पाया। इन लोगों ने जब देखा कि भोजन परोसा जा चुका है और केवल प्रारम्भ करना ही शेष है तो उन्होंने विनीत भाव में कहा कि आपको बड़ी असुविधा हुई, इसके लिये हम क्षमाप्रार्थी हैं। आप अपनी थाली छोड़कर दौड़े आए हैं तथा अन्य लोग भी आपकी प्रतिक्षा में है, इसलिये आप अपनी यह संपदा सँभालिये। इससे सम्बन्धित आश्चर्यजनक घटना किसी अन्य सुविधाजनक अवसर पर सुनाएँगे। ऐसा कहकर उन्होंने पुराने समाचार पत्रों में लिपटा हुआ एक पैकिट निकालकर उसे खोलकर मेज पर रख दिया। कागज के आवरण को ज्यों ही हेमाडपंत ने हटाया तो उन्हें बाबा का एक बड़ा सुन्दर चित्र देखकर महान् आश्चर्य हुआ। बाबा का चित्र देखकर वे द्रवित हो गए। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी और उनके समूचे शरीर में रोमांच हो आया। उनका मस्तक बाबा के श्री चरणों पर झुक गया। वे सोचने लगे कि बाबा ने इस लीला के रूप में ही मुझे आशीर्वाद दिया है। कौतुहलवश उन्होंने अली मुहम्मद से प्रश्न किया कि बाबा का यह मनोहर चित्र आपको कहाँ से प्राप्त हुआ ? उन्होंने बताया कि मैंने इसे एक दुकान से खरीदा था। इसका पूर्ण विवरण मैं किसी अन्य समय के लिये शेष रखता हूँ। कृपया आप अब भोजन कीजिए, क्योंकि सभी आपकी ही प्रतिक्षा कर रहे हैं। हेमाडपंत ने उन्हें धन्यवाद देकर नमस्कार किया और भोजन-गृह में आकर अतिथि के स्थान पर चित्र को मध्य में रखा तथा विधिपूर्वक नैवेद्य अर्पण किया। सब लोगों ने ठीक समय पर भोजन प्रारम्भ कर दिया। चित्र में बाबा का सुन्दर मनोहर रूप देखकर प्रत्येक व्यक्ति को प्रसन्नता हुई और इस घटना पर आश्चर्य भी हुआ कि वह सब कैसे घटित हुआ ? इस प्रकार बाबा ने हेमाडपंत को स्वप्न में दिये अपने वचनों को पूर्ण किया।
इस चित्र की कथा का पूर्ण विवरण, अर्थात् अली मुहम्मद को चित्र कैसे प्राप्त हुआ, और किस कारण से उन्होने उसे लाकर हेमाडपंत को भेंट किया, इसका वर्णन अगले अध्याय में किया जाएगा।