माया की अभेद्य शक्ति
बाबा के शब्द सदैव संक्षिप्त, अर्थपूर्ण, गूढ़ और विद्वत्तापूर्ण तथा समतोल रहते थे। वे सदा निश्चिंत और निर्भय रहते थे। उनका कथन था कि “मै फकीर हूँ, न तो मेरे स्त्री है और न घर-द्वार ही । सब चिंताओं का त्याग कर, मैं एक ही स्थान पर रहता हूँ। फिर भी माया मुझे कष्ट पहुँचाया करती है। मैं स्वयं को तो भूल चुका हूँ, परन्तु माया मुझे नहीं भूलती, क्योंकि वह मुझे अपने चक्र में फँसा लेती है। श्रीहरि की यह माया ब्रह्मादि को भी नहीं छोड़ती, फिर मुझ सरीखे फकीर का तो कहना ही क्या है ? परन्तु जो हरि की शरण लेंगे, वे उनकी कृपा से मायाजाल से मुक्त हो जाएँगे।” इस प्रकार बाबा ने माया की शक्ति का परिचय दिया। भगवान् श्रीकृष्ण भागवत में उद्धव से कहते हैं कि, “सन्त मेरे जीवित स्वरूप हैं” और बाबा का भी कहना यही था कि वे भाग्यशाली, जिनके समस्त पाप नष्ट होने हों, वे ही मेरी उपासना की ओर अग्रेसर होते हैं । यदि तुम केवल “साई साई” का ही स्मरण करोगे तो मैं तुम्हें भवसागर से पार कर दूँगा। इन शब्दों पर विश्वास करो, तुम्हें अवश्य लाभ होगा। मेरी पूजा के निमित्त कोई सामग्री या अष्टांग योग की भी आवश्यकता नहीं है। मैं तो भक्ति में ही निवास करता हूँ। अब आगे देखिये कि अनाश्रितों के आश्रयदाता साई ने भक्तों के कल्याणार्थ क्या-क्या दिया।
भीमाजी पाटील : सत्य साई व्रत
नारायण गाँव (तालुका जुन्नर, जिला पूना) के एक महानुभाव भीमाजी पाटील को सन् १९०९ में वक्षस्थल में एक भयंकर रोग हुआ, जो आगे चल कर क्षय रोग में परिणत हो गया। उन्होंने अनेक प्रकार की चिकित्सा की, परन्तु कुछ लाभ न हुआ। अन्त में हताश होकर उन्होंने भगवान् से प्रार्थना की, “हे नारायण ! हे प्रभो ! मुझ अनाथ की कुछ सहायता करो!” यह तो विदित ही है कि जब हम सुखी रहते हैं तो भगवत्-स्मरण नहीं करते, परन्तु ज्यों ही दुर्भाग्य घेर लेता है दुर्दिन आते हैं, तभी हमें भगवान की याद आती है। इसीलिये भीमाजी ने भी ईश्वर को पुकारा। उन्हें विचार आया कि क्यों न साईबाबा के परम भक्त श्री नानासाहेब चाँदोरकर से इस विषय में परामर्श लिया जाए और इसी हेतु उन्होंने अपनी स्थिति पूर्ण विवरण सहित उनके पास लिख भेजी और उचित मार्गदर्शन के लिये प्रार्थना की । प्रत्युत्तर में श्री नानासाहेब ने लिख दिया कि, “अब तो केवल एक ही उपाय शेष है और वह है साईबाबा के चरणकमलों की शरणागति।” नानासाहेब के वचनों पर विश्वास कर उन्होंने शिरडी-प्रस्थान की तैयारी की। उन्हें शिरडी में लाया गया और मस्जिद में ले जाकर लिटाया गया। श्री नानासाहेब और शामा भी उस समय वहीं उपस्थित थे । बाबा बोले कि, “यह पूर्व-जन्म के बुरे कर्मों का ही फल है। इस कारण मैं इस झंझट में नहीं पड़ना चाहता।” यह सुनकर रोगी अत्यन्त निराश होकर करुणापूर्ण स्वर में बोला कि, “मैं बिल्कुल निस्सहाय हूँ और अन्तिम आशा लेकर आपके श्री चरणों में आया हूँ । आपसे दया की भीख माँगता हूँ। हे दीनों के शरण ! मुझ पर दया करो।” इस प्रार्थना से बाबा का हृदय द्रवित हो आया और वे बोले कि "अच्छा, ठहरो! चिन्ता न करो । तुम्हारे दुःखों का अन्त शीघ्र होगा। कोई कितना भी दुःखित और पीड़ित क्यों न हो, जैसे ही वह मस्जिद की सीढ़ियों पर पैर रखता है, वह सुखी हो जाता है । मस्जिद का फकीर बहुत दयालु है और वह तुम्हारा रोग भी निर्मूल कर देगा । वह तो सब पर प्रेम और दया रखकर रक्षा करता है।” रोगी को हर पाँचवे मिनट पर खून की उल्टियाँ हुआ करती थीं, परन्तु बाबा के समक्ष उसे कोई उल्टी न हुई । जिस समय से बाबा ने अपने श्री-मुख से आशा और दयापूर्ण शब्दों में उक्त उद्गार प्रगट किये, उसी समय से रोग ने भी पल्टा खाया । बाबा ने रोगी भीमाबाई के घर में ठहरने को कहा । यह स्थान इस प्रकार के रोगी का सुविधाजनक और स्वास्थ्यप्रद तो न था, फिर भी बाबा की आज्ञा कौन टाल सकता था ? वहाँ पर रहते हुए बाबा ने दो स्वप्न देकर उसका रोग हरण कर लिया । पहले स्वप्न में रोगी ने देखा कि वह एक विद्यार्थी है और शिक्षक के सामने कविता मुखाग्र न कर सकने के दण्डस्वरूप बेतो की मार से असहनीय कष्ट भोग रहा है। दूसरे स्वप्न में उसने देखा कि कोई हृदय पर नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे की ओर पत्थर घुमा रहा है, जिससे उसे असह्य पीड़ा हो रही है। स्वप्न में इस प्रकार कष्ट पाकर वह स्वस्थ हो गया और घर लौट आया। फिर वह कभी-कभी शिरडी आता और साईबाबा की दया का स्मरण कर साष्टांग प्रणाम करता था। बाबा अपने भक्तों से किसी वस्तु की आशा न रखते थे । वे तो केवल स्मरण, दृढ़ निष्ठा और भक्ति के भूखे थे । महाराष्ट्र के लोग प्रतिपक्ष या प्रतिमास सदैव सत्यनारायण का व्रत किया करते हैं । परन्तु अपने गाँव पहुँचने पर भीमाजी पाटील ने सत्यनारायण व्रत के स्थान पर एक नया ही "सत्य साई व्रत" प्रारम्भ कर दिया ।
बाला गणपत दर्जी
एक दूसरे भक्त, जिनका नाम बाला गणपत दर्जी था, एक समय जीर्ण ज्वर से पीड़ित हुए। उन्होनें सब प्रकार की दवाइयाँ और काढ़े लिये, परन्तु इनसे कोई लाभ न हुआ । जब ज्वर तिलमात्र भी न घटा तो वे शिरडी दौड़े आए और बाबा के श्रीचरणों की शरणी ली। बाबा ने उन्हें विचित्र आदेश दिया कि, “लक्ष्मी मंदिर के पास जाकर एक काले कुत्ते को थोड़ा सा दही और चावल खिलाओ।” वे यह समझ न सके कि इस आदेश का पालन कैसे करें ? घर पहुँचकर चावल और दही लेकर वे लक्ष्मी मंदिर पहुँचे, जहाँ उन्हें एक काला कुत्ता पूँछ हिलाते हुए दिखा । उन्होंने वह चावल और दही उस कुत्ते के सामने रख दिया, जिसे वह तुरन्त ही खा गया। इस चरित्र की विशेषता का वर्णन केसे करूँ कि उपर्युक्त उपाय करने मात्र से ही बाला दर्जी का ज्वर हमेशा के लिये जाता रहा।
बापूसाहेब बूटी
श्रीमान् बापूसाहेब बूटी एक बार अम्लपित्त के रोग से पीड़ित हुए। उनकी अलमारी में अनेक औषधियाँ थीं, परन्तु कोई भी गुणकारी न हो रही थी। बापूसाहेब अम्लपित्त के कारण अति दुर्बल हो गए और उनकी स्थिति इतनी गम्भीर हो गई कि वे अब मस्जिद में जाकर बाबा के दर्शन करने में भी असमर्थ थे। बाबा ने उन्हें बुलाकार अपने सम्मुख बिठाया और बोले, “सावधान, तुम्हें दस्त न लगेंगे।” अपनी उँगली उठाकर फिर कहने लगे, “उल्टियाँ भी अवश्य रुक जाएँगी।” बाबा ने ऐसी कृपा की कि रोग समूल नष्ट हो गया और बूटीसाहेब पूर्ण स्वस्थ हो गए। अब एक अन्य अवसर पर भी वे हैजा से पीड़ित हो गए। फलस्वरूप उनकी प्यास अधिक तीव्र हो गई। डॉ. पिल्ले ने हर तरह के उपचार किये, परन्तु स्थिति न सुधरी । अन्त में वे फिर बाबा के पास पहुँचे और उनसे तृषारोग निवारण की औषधि के लिये प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना सुनकर बाबा ने उन्हें, “मीठे दूध में उबाला हुआ बादाम, अखरोट और पिस्ते का काढ़ा पियो।”— यह औषधि बतला दी ।
दूसरा डॉक्टर या हकीम बाबा की बतलाई हुई इस औषधि को प्राणघातक ही समझता, परन्तु बाबा की आज्ञा का पालन करने से यह रोगनाशक सिद्ध हुई और आश्चर्य की बात है कि रोग समूल नष्ट हो गया।
आलंदी के स्वामी
आलंदी के एक स्वामी बाबा के दर्शनार्थ शिरडी पधारे। उनके कान में असह्य पीड़ा थी, जिसके कारण उन्हें एक पल भी विश्राम करना दुष्कर था। उनकी शल्य चिकित्सा भी हो चुकी थी, फिर भी स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन न हुआ था । दर्द भी अधिक था। वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वापस लौटने के लिये बाबा से अनुमति माँगने गए। यह देखकर शामा ने बाबा से प्रार्थना की कि, “स्वामी के कान में अधिक पीड़ा है। आप इन पर कृपा करो।” बाबा आश्वासन देकर बोले, “अल्लाह अच्छा करेगा।” स्वामीजी पूना वापस लौट गए और एक सप्ताह के बाद उन्होंने शिरडी पत्र भेजा कि, “पिड़ा शान्त हो गई है। परन्तु सूजन अभी पूर्ववत् ही है।” सूजन दूर हो जाए, इसके लिये वे शल्यचिकित्सा (ऑपरेशन) कराने बम्बई गए। शल्यचिकित्सा विशेषज्ञ (सर्जन) ने जाँच करने के बाद कहा कि “शल्यचिकित्सा (ऑपरेशन) की कोई आवश्यकता नहीं ।” बाबा के शब्दों का गुढ़ार्थ हम निरे मूर्ख क्या समझें?
काका महाजनी
काका महाजनी नाम के एक अन्य भक्त को अतिसार की बीमारी हो गई। बाबा का सेवा-क्रम कहीं टूट न जाए, इस कारण वे एक लोटा पानी भरकर मस्जिद के एक कोने में रख देते थे, ताकि शंका होने पर शीघ्र ही बाहर जा सकें। श्री साईबाबा को तो सब विदित ही था। फिर भी काका ने बाबा को सूचना इसलिये नहीं दी कि वे रोग से शीघ्र ही मुक्ति पा जाएँगे । मस्जिद में फर्श बनाने की स्वीकृति बाबा से प्राप्त हो ही चुकी थी, परन्तु जब कार्य प्रारम्भ हुआ तो बाबा क्रोधित हो गए और उत्तेजित होकर चिल्लाने लगे, जिससे भगदड़ मच गई। जैसे ही काका भागने लगे, वैसे ही बाबा ने उन्हें पकड़ लिया और अपने सामने बैठा लिया। इस गड़बड़ी में कोई आदमी मुँगफली की एक छोटी थैली वहाँ भूल गया । बाबा ने एक मुट्ठी मूँगफली उसमें से निकाली और छील कर दाने काका को खाने के लिये दे दिये। क्रोधित होना, मूँगफली छीलना और उन्हें काका को खिलाना, यह सब कार्य एक साथ ही चलने लगा । स्वयं बाबा ने भी उसमें से कुछ मूँगफली खाई । जब थैली खाली हो गई तो बाबा ने कहा कि मुझे प्यास लगी है। जाकर थोड़ा जल ले आओ । काका एक घड़ा पानी भर लाये और दोनों ने उसमें पानी पिया। फिर बाबा बोले कि, “अब तुम्हारा अतिसार रोग दूर हो गया। तुम अपने फर्श के कार्य की देखभाल कर सकते हो।” थोड़े ही समय में भागे हुए लोग भी लौट आए । कार्य पुनः प्रारम्भ हो गया । काका का रोग अब प्रायः दूर हो चुका था। इस कारण वे कार्य में संलग्न हो गए । क्या मूँगफली अतिसार रोग की औषधि है ? इसका उत्तर कौन दे ? वर्त्तमान चिकित्सा प्रणाली के अनुसार तो मूँगफली से अतिसार में वृद्धि ही होती है, न कि मुक्ति । इस विषय में सदैव की भाँति बाबा के श्री वचन ही औषधिस्वरूप थे।
हरदा के दत्तोपन्त
हरदा के एक सज्जन, जिनका नाम श्री दत्तोपन्त था, १४ वर्ष से उदर रोग से पीड़ित थे । किसी भी ओषधि से उन्हें लाभ न हुआ। अचानक कहीं से बाबा की कीर्ति उनके कानों में पड़ी कि उनकी दृष्टि मात्र से ही रोगी स्वस्थ हो जाते हैं । अतः वे शिरडी आए और बाबा के चरणों की शरण ली । बाबा ने प्रेम-दृष्टि से उनकी ओर देखकर आशीर्वाद देकर अपना वरदहस्त उनके मस्तक पर रखा । आशीष और उदी प्राप्त कर वे स्वस्थ हो गए तथा भविष्य में उन्हें फिर कोई पीड़ा न हुई।
इसी तरह के निम्नलिचित तीन चमत्कार इस अध्याय के अन्त में टिप्पणी में दिये गए हैं—
(१) माधवराव देशपांडे बवासीर रोग से पीड़ित थे । बाबा की आज्ञानुसार सोनामुखी का काढ़ा सेवन करने से वे नीरोग हो गए। दो वर्ष पश्चात् उन्हें पुनः वही पीड़ा उत्पन्न हुई। बाबा से बिना परामर्श लिये वे उसी काढ़े का सेवन करने लगे। परिणाम यह हुआ कि रोग अधिक बढ़ गया । परन्तु बाद में बाबा कि कृपा से शीघ्र ही ठीक हो गया।
(२) काका महाजनी के बड़े भाई गंगाधरपन्त को कुछ वर्षों से सदैव उदर में पीड़ा बनी रहती थी। बाबा की कीर्त्ति सुनकर वे भी शिरडी आए और आरोग्य-प्राप्ति के लिये प्रार्थना करने लगे। बाबा ने उनके उदर को स्पर्श कर कहा, “अल्लाह अच्छा करेगा।” इसके पश्चात् तुरंत ही उनकी उदर-पीड़ा मिट गई और वे पूर्णतः स्वस्थ हो गए।
(३) श्री नानासाहेब चाँदोरकर को भी एक बार उदर में बहुत पीड़ा होने लगी। वे दिनरात मछली के समान तड़पने लगे। डॉक्टरों ने अनेक उपचार किये, परन्तु कोई परिणाम न निकला। अन्त में वे बाबा की शरण में आए। बाबा ने उन्हें घी के साथ बर्फी खाने की आज्ञा दी। इस औषधि के सेवन से वे पूर्ण स्वस्थ हो गए।
इन सब कथाओं से यही प्रतीत होता है कि सच्ची औषधि, जिससे अनेकों को स्वास्थ-लाभ हुआ, वह बाबा के केवल श्रीमुख से उच्चारित वचनों एवं उनकी कृपा का ही प्रभाव था ।