इस अध्याय में अब हम श्री साईबाबा के सगुण ब्रह्म स्वरुप, उनका पूजन तथा तत्वनियंत्रण का वर्णन करेंगे।
सगुण ब्रह्म श्री साईबाबा
ब्रह्म के दो स्वरुप हैं — निर्गुण और सगुण। निर्गुण निराकार है और सगुण साकार है । यद्यपि वे एक ही ब्रह्म के दो रूप हैं, फिर भी किसी को निर्गुण और किसी को सगुण उपासना में दिलचस्पी होती है, जैसा कि गीता का अध्याय १२ में वर्णन किया गया है। सगुण उपासना सरल और श्रेष्ठ है। मनुष्य स्वयं आकार (शरीर, इन्द्रिय आदि) में है, इसीलिये उसे ईश्वर की साकार उपासना स्वभावतः ही सरल है। जब तक कुछ काल सगुण ब्रह्म की उपासना न की जाए, तब तक प्रेम और भक्ति में वृद्धि ही नही होती । सगुणोपासना में जैसे-जैसे हमारी प्रगति होती जाती है, हम निर्गुण ब्रह्म की ओर अग्रसर होते जाते हैं। इसलिये सगुण उपासना से ही श्री गणेश करना अति उत्तम है। मूर्ति, वेदी, अग्नि, प्रकाश, सूर्य, जल और ब्राह्मण आदि सप्त उपासना की वस्तुएँ होते हुए भी, सद्गुरु ही इन सब में श्रेष्ठ है।
श्री साई का स्वरूप आँखो के सम्मुख लाओ, जो वैराग्य की प्रत्यक्ष मूर्ति और अनन्य शरणागत भक्तों के आश्रयदाता हैं। उनके शब्दों में विश्वास लाना ही आसन और उनके पूजन का संकल्प करना ही समस्त इच्छाओं का त्याग है।
कोई-कोई श्री साईबाबा की गणना भगवद्भक्त अथवा एक महाभागवत (महान् भक्त) में करते थे या करते हैं। परन्तु हम लोगों के लिये तो वे ईश्वरावतार हैं। वे अत्यन्त क्षमाशील, शान्त, सरल और सन्तुष्ट थे, जिसकी कोई उपमा ही नहीं दी जा सकती। यद्यपि वे शरीरधारी थे, पर यथार्थ में निर्गुण, निराकार, अनन्त और नित्यमुक्त थे । गंगा नदी समुद्र की ओर जाती हुई मार्ग में ग्रीष्म से व्यथित अनेकों प्राणियों को शीतलता पहुँचा कर आनन्दित करती, फसलों और वृक्षों को जीवन-दान देती और जिस प्रकार प्राणियों की क्षुधा शान्त करती है, उसी प्रकार श्री साई सन्त-जीवन व्यतीत करते हुए भी दूसरों को सान्त्वना और सुख पहुँचाते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है “संत ही मेरी आत्मा हैं। वे मेरी जीवित प्रतिमा और मेरे ही विशुद्ध रूप हैं। मैं स्वयं वही हूँ।” ये अवर्णनीय शक्तियाँ या ईश्वर की शक्ति, जो कि सत्, चित् और आनन्द है, शिरडी में साई रूप में अवतीर्ण हुई थीं। श्रुति (तैतिरीय उपनिषद्) में ब्रह्म को आनन्द कहा गया है। अभी तक यह विषय केवल पुस्तकों में पढ़ते और सुनते थे, परन्तु भक्तगण ने शिरडी में इस प्रकार का प्रत्यक्ष आनन्द पा लिया है। बाबा सब के आश्रयदाता थे, उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता न थी। उनके बैठने के लिये भक्तगण एक मुलायम आसन और एक बड़ा तकिया लगा देते थे । बाबा भक्तों के भावों का आदर करते और उनकी इच्छानुसार पूजनादि करने देने में किसी प्रकार की आपत्ति न करते थे । कोई इत्र और चन्दन लगाते, कोई सुपारी, पान और अन्य वस्तुएँ भेंट करते और कोई नैवेद्य ही अर्पित करते थे। यद्यपि ऐसा जान पड़ता था कि उनका निवासस्थान शिरडी में है, परन्तु वे तो सर्वव्यापक थे। इसका भक्तों ने नित्य प्रति अनुभव किया। ऐसे सर्वव्यापक गुरुदेव के चरणों में मेरा बार-बार नमस्कार है।
डॉक्टर पंडित की भक्ति
एक बार श्री तात्या नूलकर के मित्र डॉक्टर पंडित बाबा के दर्शनार्थ शिरडी पधारे। बाबा को प्रणाम कर वे मस्जिद में कुछ देर तक बैठे । बाबा ने उन्हें श्री दादा भट्ट केलकर के पास भेजा, जहाँ पर उनका अच्छा स्वागत हुआ। फिर दादा भट्ट और डॉ. पंडित एक साथ पूजन के लिये मस्जिद पहुँचे।
दादा भट्ट ने बाबा का पूजन किया। बाबा का पूजन तो प्रायः सभी किया करते थे, परन्तु अभी तक उनके शुभ मस्तक पर चन्दन लगाने का किसी ने भी साहस नहीं किया था। केवल एक म्हालसापति ही उनके गले में चन्दन लगाया करते थे। डॉ, पंडित ने पूजन की थाली में से चन्दन लेकर बाबा के मस्तक पर त्रिपुण्डाकार लगाया । लोगों ने महान् आश्चर्य से देखा कि बाबा ने एक शब्द भी नहीं कहा। सन्ध्या समय दादा भट्ट ने बाबा से पूछा, “क्या कारण है कि आप दूसरों को तो मस्तक पर चन्दन नहीं लगाने देते, परन्तु डॉक्टर पंडित को आपने कुछ भी नहीं कहा ?” बाबा कहने लगे, "डॉ. पंडित ने मुझे अपने गुरु श्री रघुनाथ महाराज धोपेश्वरकर, जो कि काका पुराणिक के नाम से प्रसिद्ध हैं, के ही समान समझा और अपने गुरु को वे जिस प्रकार चन्दन लगाते थे, उसी भावना से उन्होंने मुझे चन्दन लगाया। तब मैं कैसे रोक सकता था ?” पूछने पर डॉ. पंडित ने दादा भट्ट से कहा कि मैंने बाबा को अपने गुरु काका पुराणिक के समान जानकर ही उन्हें त्रिपुण्डाकार चन्दन लगाया है, जिस प्रकार मैं अपने गुरु को सदैव लगाया करता था ।
यद्यपि बाबा भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही पूजन करने देते थे, परन्तु कभी-कभी तो उनका व्यवहार विचित्र ही हो जाया करता था । जब कभी वे पूजन की थाली फेंक कर रुद्रावतार धारण कर लेते, तब उनके समीप जाने का साहस किसी को न हो सकता था। कभी वे भक्तों को झिड़कते और कभी मोम से भी नरम होकर शान्ति तथा क्षमा की मूर्ति-से प्रतीत होते थे । कभी-कभी वे क्रोधावस्था में कम्पायमान हो जाते और उनके लाल नेत्र चारों ओर घूमने लगते थे, तथापि उनके अन्तःकरण में प्रेम और मार्त-स्नेह का स्त्रोत बहा ही करता था। भक्तों को बुलाकर वे कहा करते थे कि उन्हें तो कुछ ज्ञात ही नहीं है कि वे कब उनपर क्रोधित हुए । यदि यह सम्भव हो कि समुद्र नदियों को लौटा दे तो वे भक्तों के कल्याण की भी उपेक्षा कर सकते हैं। वे तो भक्तों के समीप ही रहते हैं और जब भक्त उन्हें पुकारते हैं तो वे तुरन्त ही उपस्थित हो जाते हैं । वे तो सदा भक्तों के प्रेम के भूखे हैं ।
हाजी सिद्दीक फालके
यह कोई नहीं कह सकता था कि कब श्री साईबाबा अपने भक्त को अपना कृपापात्र बना लेंगे। यह उनकी इच्छा पर निर्भर था। हाजी सिद्दीक फालके की कथा इसी का उदाहरण है। कल्याणनिवासी एक यवन, जिनका नाम सिद्दीक फालके था, मक्का शरीफ की हज करने के बाद शिरडी आए। वे चावड़ी में उत्तर की ओर रहने लगे। वे मस्जिद के सामने खुले आँगन में बैठा करते थे। बाबा ने उन्हें नौ माह तक मस्जिद में प्रविष्ट होने की आज्ञा न दी और न ही मस्जिद की सीढ़ी चढ़ने दी। फालके बहुत निराश हुए और कुछ निर्णय न कर सके कि कौन-सा उपाय काम में लायें। लोगों ने उन्हें सलाह दी कि आशा न त्यागो । शामा श्री साईबाबा के अंतरंग भक्त हैं। तुम उनके ही द्वारा बाबा के पास पहुँचने का प्रयत्न करो। जिस प्रकार भगवान शंकर के पास पहुँचने के लिये नन्दी के पास जाना आवश्यक होता है, उसी प्रकार बाबा के पास भी शामा के द्वारा ही पहुँचना चाहिए। फालके को यह विचार उचित प्रतीत हुआ और उन्होंने शामा से सहायता की प्रार्थना की। शामा ने भी आश्वासन दे दिया और अवसर पाकर वे बाबा से इस प्रकार बोले कि, "बाबा, आप उस बूढ़े हाजी को मस्जिद में किस कारण नहीं आने देते ? अनेक भक्त स्वेच्छापूर्वक आपके दर्शन को आया-जाया करते हैं। कम से कम एक बार तो उसे आशीष दे दो।” बाबा बोले, “शामा, तुम अभी नादान हो। यदि फकिर (अल्लाह) नहीं आने देता है तो मैं क्या करूँ ? उनकी कृपा के बिना कोई भी मस्जिद की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ सकता। अच्छा, तुम उससे पूछ आओ कि क्या वह बारवी कुएँ की निचली पगडंडी पर आने को सहमत है ?" शामा स्वीकारात्मक उत्तर लेकर पहुँचे। फिर बाबा ने पुनः शामा से कहा कि उससे फिर पूछो कि, “क्या वह मुझे चार किश्तों में चालीस हजार रुपये देने को तैयार है?" फिर शामा उत्तर लेकर लौटे कि, “आप कहें तो मैं चालीस लाख रुपये देने को तैयार हुँ।”
“मैं मस्जिद में एक बकरा हलाल करने वाला हूँ, उससे पूछो कि उसे क्या रुचिकर होगा “बकरे का मांस, नाध या अंडकोष ?” शामा यह उत्तर लेकर लौटे कि, “यदि बाबा के भोजन-पात्र में से एक ग्रास भी मिल जाए तो हाजी अपने को सौभाग्यशाली समझेगा।” यह उत्तर पाकर बाबा उत्तेजित हो गए और उन्होंने अपने हाथ से मिट्टी का बर्तन (पानी की गागर) उठाकर फेंक दी और अपनी कफनी उठाये हुए सीधे हाजी के पास पहुँचे। वे उनसे कहने लगे कि “व्यर्थ ही नमाज़ क्यों पढ़ते हो? अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन क्यों करते हो ? यह वृद्ध हाजियों के समान वेशभूषा तुमने क्यों धारण की है ? क्या तुम कुरान शरीफ का इसी प्रकार पठन करते हो ? तुम्हें अपने मक्का हज का अभिमान हो गया है, परन्तु तुम मुझसे अनभिज्ञ हो।” इस प्रकार डाँट सुनकर हाजी घबड़ा गया। बाबा मस्जिद को लौट आए और कुछ आमों की टोकरियाँ खरीद कर हाजी के पास भेज दीं। वे स्वयं भी हाजी के पास गए और अपने पास से ५५ रुपये निकाल कर हाजी को दिये। इसके बाद से ही बाबा हाजी से प्रेम करने लगे तथा अपने साथ भोजन करने को बुलाने लगे। अब हाजी भी अपनी इच्छानुसार मस्जिद में आने-जाने लगे। कभी-कभी बाबा उन्हें कुछ रुपये भी भेंट में दे दिया करते थे। इस प्रकार हाजी बाबा के दरबार में सम्मिलित हो गए।
बाबा का तत्वों पर नियंत्रण
बाबा के तत्व-नियंत्रण की दो घटनाओं के उल्लेख के साथ ही यह अध्याय समाप्त हो जाएगा।
(१) एक बार सन्ध्या समय शिरडी में भयानक झंझावात आया। आकाश में घने और काले बादल छाये हुये थे। पवन झकोर रहा था । बादल गरज रहे थे और बिजली चमक रही थी। मूसलधार वर्षा प्रारंभ हो गई। जहाँ देखो, वहाँ जल ही जल दृष्टिगोचर होने लगा । सब पशु, पक्षी और शिरडीवासी अधिक भयभीत होकर मस्जिद में एकत्रित हुए। शिरडी में देवियाँ तो अनेकों हैं, परन्तु उस दिन सहायतार्थ कोई न आईं। इसलिये सभी ने अपने भगवान साई से, जो भक्ति के ही भूखे थे, संकट-निवारण करने की प्रार्थना की । बाबा को भी दया आ गई और वे बाहर निकल आए। मस्जिद के समीप खड़े होकर उन्होंने बादलों की ओर दृष्टि कर गरजते हुए शब्दों में कहा कि “बस, शांत हो जाओ।” कुछ समय के बाद ही वर्षा का जोर कम हो गया और पवन मन्द पड़ गयी तथा आँधी भी शान्त हो गई। आकाश में चन्द्रदेव उदित हो गए। तब सब लोग अति प्रसन्न होकर अपने-अपने घर लौट आए।
(२) एक अन्य अवसर पर मध्याह्न के समय धूनी की अग्नि इतनी प्रचण्ड होकर जलने लगी कि उसकी लपटें ऊपर छत तक पहुँचने लगीं। मस्जिद में बैठे हुए लोगों की समझ में न आता था कि जल डाल कर अग्नि शांत कर दें अथवा कोई अन्य उपाय काम में लावें। बाबा से पूछने का साहस भी कोई नहीं कर पा रहा था।
परन्तु बाबा शीघ्र परिस्थिति को जान गए। उन्होंने अपना सटका उठाकर सामने के खम्भे पर बलपूर्वक प्रहार किया और बोले “नीचे उतरों और शान्त हो जाओ।” सटके की प्रत्येक ठोकर पर लपटें कम होने लगीं और कुछ मिनटों में ही धुनी शान्त और यथापूर्वक हो गई। श्री साई ईश्वर के अवतार हैं। जो उनके सामने नत होकर उनके शरणागत होगा, उस पर वे अवश्य कृपा करेंगे। जो भक्त इस अध्याय की कथायें प्रतिदिन श्रद्धा और भक्तिपूर्वक पठन करेगा, उसका दुःखों से शीघ्र ही छुटकारा हो जाएगा। केवल इतना ही नहीं, वरन् उसे सदैव श्री साई चरणों का स्मरण बना रहेगा और उसे अल्पकाल में ही ईश्वर-दर्शन की प्राप्ति होकर, उसकी समस्त इच्छायें पूर्ण हो जाएँगी और इस प्रकार वह निष्काम बन जाएगा।