#चौबोली रानी (भाग 9)
#विक्रमादित्य
चन्द्रनयनी प्रतीक्षा करते करते विह्वल हो गई.निर्जन वन,अकेली नारी, वह भयभीत हो उठी. सारथी के भी न लौटने पर उसका ह्रदय आशंका से भर उठा. प्रतीक्षा करना अब असहनीय हो गया और वह भी देवी के मंदिर की ओर चल पड़ी
देवालय में प्रवेश करते ही उसने अपने पति और सारथी के कटे हुए शव देखे, चारों ओर बिखरा हुआ रक्त देखा,देखते ही उसकी चीत्कार निकल गई और वह अचेत हो गई. पता नहीं कितने समय तक वह बेहोश रही, होश आने पर रुदन करने लगी - "हे भगवान! जब स्वामी ही चले गये तो मैं जीवित रह कर क्या करूंगी ? विधवा का जीवन एकाकी और सम्मान विहीन होता है.मृत्यु ही मेरे दुःखों का अंत कर सकती है.
चंद्रनयनी ने भी तलवार उठाकर अपना शीश काटना चाहा,किन्तु किसी अदृश्य हाथ ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा - देवालय में नारी की बलि वर्जित है.
अदृश्य शक्ति ने कहा - मैं स्वयं देवी हूं, आत्महत्या करना पाप है. तुम्हारे पति और सारथी की बली से भी मैं प्रसन्न नहीं हूं.
यह देवी का मंदिर है. यहां श्रद्धालु कष्टों से मुक्ति प्राप्त करने आते है,जान गंवाने के लिये नहीं. देवी मां जगत माता का रूप है, उसकी ममतामयी गोद में मृत्यु और दु:खों को कोई स्थान नहीं. मैं तुम्हें शीश चढ़ाने नहीं दूँगी. नारी की बली यहां सर्वथा निषिद्ध है.
चंद्रनयनी ने कहा - मां ! मेरा जीवन निर्थक है. मेरे सारे सुख पति के साथ चले गये, मैं जीवित रह कर क्या करूंगी ? मेरा हाथ छोड़दो.
देवी माता बोली - मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगी.मेरे मंदिर बलि वर्जित है तो मेरे स्वामी और सारथी को क्यूं नहीं रोका ?
देवी ने कहा - पुत्री ! तू समझती क्यों नहीं ? मैं नारी हूं मैं पुरुष का स्पर्श नहीं कर सकती, फिर उन्हें रोकती कैसे?
तू अपनी बली मत चढ़ा, कोई वरदान मांग ले.
चंद्रनयनी ने कहा - मां! आप इतनी उदार है तो मेरे पति और उनके सारथी को जीवित कर दीजिये.
देवी माता बोली - तू पागल हुई है क्या? मृत्यु की गोद में जाने के बाद कोई लौटता है ?
कोई वरदान मांग ले.
चंद्रनयनी ने कहा - माता! या तो मेरी बलि स्वीकार करो या मेरे पति और सारथी को जीवनदान दो.
देवी माता ने कहा - मैं अपने मंदिर को कलंकित नहीं करना चाहती, मैं तेरे पति को जीवित कर देती हूं, तू बलि का विकल्प छोड़ दे.
चंद्रनयनी बोली -मां! सारथी ने मेरे पति को मृत देखकर ही बलि दी है. मैं इतनी स्वार्थी नहीं कि स्वामी के अनुचर को छोड़ कर मात्र अपने स्वामी को जीवित देखने की कामना करू.
देवी मां और चंद्रनयनी पर्याप्त समय तक-वितर्क करती रहीँ. अंत में देवी ने कहा - चंद्रनयनी ! मैं तेरी उदात्त भावना से प्रसन्न हूं.मैं दोनों को जीवनदान देती हूं.तू
पृथक-पृथक पड़े इनके शीश और धड़ को जोड़ दे, मैं प्राणों का संचार कर दूँगी.
चंद्रनयनी की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा. उसने अविलम्ब सारथी और अपने स्वामी के शीश और धड़ जोड़ दिये दिव्यरूपा देवी मां प्रकट हुई और अमृत सिंचन कर दोनों को जीवित कर दिया. किन्तु चंद्रनयनी से एक भूल हो गई.
उसने आसावधानी के कारण सारथी के धड के साथ कामदेव का सिर और कामदेव के सिर के साथ सारथी का सिर जोड़ दिया. जीवित होने के पश्चात दोनों परस्पर झगडने लगे कि चंद्रनयनी मेरी पत्नी है और कामदेव कहता कि मेरी पत्नी है
राजा विक्रमादित्य ने दीपक से प्रश्न किया - ओ ज्योतिपुंज दीप! अब तुम्ही बताओ चंद्रनयनी किसकी पत्नी है ?
पति का धड़ और सारथी के शीश वाले की,या सारथी का धड़ और पति के शीश वाले की ?
दीप की लौ कंपकपाई और बोली - तुमने मुझे धर्म-संकट में डाल दिया, किंतु मैं दीपक हूं, पानिग्रहण संस्कारों का साक्षी हूं मैं भुलावे में आने वाला नहीं हूं. पानिग्रहण संस्कार में वर वधू के हाथ संयुक्त किये जाते है इसलिए वह कामदेव के (धड़) शरीर वाले की पत्नी है.
दीपक का उत्तर सुनकर राजकुमारी लीलावती क्रोधीत हो उठी सिंहासन से उतर कर दीपक के समीप गई और निर्ममतापूर्वक दीपक बुझा दिया वेताल तत्काल दीपक से निकल कर विक्रम के पास आ गया.
सम्राट विक्रमादित्य ने कहा - राजकुमारी लीलावती, आप कुपित न हो, दीपक विवाह का साक्षी है, यदि आप उसके उत्तर से संतुष्ट नहीं है तो आप यथार्थ उत्तर दीजिये, न्याय कीजिये.
रानी लीलावती दुविधा में पड गई कि उत्तर दे या नहीं उत्तर देने के लिये बोलना अनिवार्य है.
राजा विक्रमादित्य ने राजकुमारी लीलावती की मन:स्थिति का लाभ उठाते हुये कहा - "आप न्याय सिंहासन पर बैठी है, न्याय करना आपका कर्तव्य है, सच क्या है, झूठ क्या है तत्काल निर्णय दीजिये अन्यथा इसका अर्थ यही होगा कि आपमें निर्णय करने की क्षमता का अभाव है"
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