मेरा भारत लौटा दो 9
काव्य संकलन
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’
समर्पण
पूज्य पितृवरों के श्री चरणों में सादर
दो शब्द-
प्यारी मातृभूमि के दर्दों से आहत होकर, यह जनमानस पुन: शान्ति, सुयश और गौरव के उस युग-युगीन आनन्द के सौन्दर्य की अनुभूति की चाह में अपने खोए हुए अतीत को, पुन: याद करते हुए इस काव्य संकलन – ‘’मेरा भारत लौटा दो’’ के पन्नों को, आपके चिंतन झरोखों के सामने प्रस्तुत कर, अपने आप को धन्य मानने का अभिलाषी बनना चाहता है। सादर ।।
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’ डबरा
भारत बंद--
हमें बिल्कुल नहीं देखा, औ भारत बंद करडाला।
दो जून का भोजन, जिस पर पड़ गया ताला।।
बड़े लोगों का ये आलम, अपनी बात मनवाने-
जब भी मन हुआ जुर मिल भारत बंद कर डाला।।
उन्हें नहीं भूंख की चिंता तिजोड़ी है भरी उनकी-
सियासत की कहानी ने, दुनियां को जला डाला।।
कहीं मस्जिद मिटा डाली, कहीं दी आग मंदिर में-
कहीं पर युग मसीहों का, काला मुंह भी कर डाला।।
बैठे कोठियों अन्दर, लगाकर आग बस्ती में-
सब कुछ बोट की खातिर, पलट लैं छिनों में पाला।।
न देखें जमीं की हालत, उजड़े घर गरीबों के-
कितनी जिंदगी रोतीं, कितना-क्या जो कर डाला।।
गरीबों को सताते क्यों, भारत बंद जो करके-
लडा़ई हो बराबर की, छोड़कर गरीबी-पाला।।
खड़ी दीवार क्यों कर दी, सियासत और मजहबी की-
नहीं मनमस्त दुनियां है, हमारी सुनो कुछ लाला।।
राजनीति--
उनके सब कुछ सुन्दर-सुन्दर कारनामे है,काले-काले।
कितना क्या नहीं करा देत है राजनीति में जाने वाले।।
झूंठ, फरेबी जादूगीरी, हंसी हंसी में मीठी गाली-
बोटों की खातिर सुन लेते, राजनीति ने गद्हे पाले।।
कर डाली कितनी हड़तालें, संसद के आगे गदहों ने-
आम जुबानी बातें होती, सूअर हो जाते मत वाले।।
अखबारों के कार्टून ने, किस-किस को नहिं नाच नचाया-
कोई कुर्सी खींच रहा है, कोई गिरता धूम-धड़ाले।।
गाली भी सुन लेते हंसके, मतलब गदहा बाप बनाते-
कोई हाथी, सिंह सवारी, कोई पैदल-पावन छाले।।
अफवाहों से भरैं जमाना, देकर गर्म हवा कुछ हंसते-
आग लगा, आंधी ले आते, अपने-अपने मतलब वाले।।
जादूकर हैं अपने मत के, इनकी मुट्ठी में सब कुछ है-
सभी गुणों के हैं भंडारी, अब के देश चलाने वाले।।
सावधान इनसे रहना है आस्तीन के सांप, यही है-
मतलब में मनमस्त सभी कुछ, ऐसे जीवन जीने वाले।।
प्यार का तोहफा--
इस सफर को, भूल जाना चाहिए।
हाथ रिश्तों के बढ़ाना चाहिए।।
दर्द मिटते ही दिखेंगे क्षणों में-
बख्त के पाबन्द होना चाहिए।।
हमने वादों पर भरोसा जो किया-
वे सभी-सारे निभाना चाहिए।।
आंधियां तो आएंगी-मिट जाएंगी-
दीप उसमें भी जलाना चाहिए।।
हार कर बैठो न साथी राह में-
समय को अपना बनाना चाहिए।।
समझदारी ले चले फिर भूल कैसे हो गई-
बख्त के इस दौर को फिर से समझना चाहिए।।
फूल चाहे थे विछाना, कौन कांटे बो गया-
इस धड़कती नब्ज को, अब सझना चाहिए।।
किस कदर पसरा हुआ है मौत का साया यहां-
जख्म ओझिल जिंदगी को-लौट आना चाहिए।।
जो हुआ- सब भूल कर मनमस्त संभलो तो अभी-
प्यार का तोहफा हमेशा-प्यार होना चाहिए।।
जागोगे कब--
कैसे सोए यहां आज मुंशिफ हमारे।
न्यायों की तकदीर किसके सहारे।।
कौमियत की कहानी में उलझे सभी क्यों।
न खोले अभी-भी, सच के दुआरे।।
आईना बोलता है, सुनते नहीं क्यों।
ऐसे में जीवित हैं, कैसे विचारे।।
दुर्दशा ये व्यवस्था की देखी न जाती-
ढहते दिखैं जब, दोनों किनारे।।
जिंदगी बे हताशा हुई है यहां पर-
चारौ तरफ जब तने हों दुधारे।।
देखते हैं तमाशा खड़े दूर से वे-
जिनके ही कंधे हैं, इसके सहारे।।
सोचते भी नहीं, बुनियाद हिल रही है-
ऊपर की मंजिल फिर किसके सहारे।।
इतने तो मनमस्त होओ नहीं अब-
जागोगे कब, तुम जगाने हो बारे।।
ढहता किला--
किसी का सहारा न, उसको मिला।
पन्नियां बीनता है, है किसको गिला।।
जागता बो रहा- जब सोया शहर-
पन्नियां के तले, क्यों दिल ना हिला।।
लोग कहते, विकासों की गंगा वही-
सबको गूंगा किया-युग-शराबैं पिला।।
भूंख की, ये कहानी क्यों लम्बी हुई-
न्याय के इन किलों का, न खम्मा हिला।।
रात तो, यह इबारत लिखे रात भर-
कब सूरज निकलता-पता ना चला।।
उन रंगीन महलों में मुजरा हुआ-
इधर की कहानी का गुल ना खिला।।
और कब तक भुलाओगे इस बात को-
जाग जाओ-ओ मनमस्त, ढहता किला।।
सब सपना हो गया--
बोलती बंद है, सब ही गू्ंगे बने।
अब तो डर ना कोई, फिर क्यों अनमने।।
वह तूफांन आया, निकर-सा गया-
फिर काहे को इतने खड़े हो तने।।
लौट आए हैं पंछी, जो उड़ से गए-
अपने घौंसल में आकर, चबाते चने।।
जो झाखड़ उखाड़े गए थे यहां-
वहां पर, उग आए, कोई अपर्णे तने।।
अब निडर होके सूरज निकलने लगा-
नाचते हैं बे तारे, अभी अनमने।।
जिनने कुछ था किया-वे घरों में छिपे-
मौसम बदला है फिर भी, कुहासा घने।।
जो हुआ था यहां, सब सपना हो गया-
अब काहे पै मनमस्त हो कुनमुने।।
दौरे जुल्म यही--
जहां प्रेस और अभिव्यक्ति, आजाद हो नहीं।
बुनियाद लोकतंत्र की, किस वेश पर, सही।।
छत-छान की कहानी, रोटी की बात भी-
कहने पर लगी रोक हो, मुश्किल तो है यही।।
कैसा चला है दौर ये, सियासत के खेल का-
आंखें डरीं हैं, देख कर आंखों को हर कहीं।।।
दहशत में आम जन, साया है खौंफ का-
कैसे कहैं आजाद, हमें, दर्द है यही।।
कलियां सिशकतीं बैठकर, खार गोद में-
धरती तपी है ताप से, है नेह नहीं-कहीं।।
अंधड़-बवंडर का यहां-अंधियार छा गया-
सबकीं जुबानें बंद हैं, दौरे-जुल्मे मही।।
सावन उदासी लेखड़ा, बे रंग हुआ फागुन-
मनमस्त देश है नहीं, यह बात सच कही।।
सत्ता का खेल--
देखो तो मेरे देश में, क्या-क्या तो हो रहा।
खौंफों भरी हैं सत्ता जहां, जन मन भी दह रहा।।
भूंखों के गीत सुन पड़ें आंतों के राग में-
पेटों की सुकुड़न बढ़ गई, तिहरा जिसे कहा।।
बंचित बटे हैं आज-यहां धर्म-जाति में-
सत्ता के खेल, क्या कहें, अजूबा यहां रहा।।
सैकीं हैं रोटियां सदां, अर्थी में ताप कर-
सियासत हमारी का सदां, जुमला यही रहा।।
खुशहाल जिंदगी में, अब दर्दों के घर बसे-
सांसें थमीं हैं देश की, सुख फरार हो रहा।।
गुजरा जमाना अब यहां, खिलखिलाते दौर का-
किस हाल, बेहाल में, पसीना यहां बहा।।
आता नहीं है कोई भी पसीना को पौंछने।
कितना जमाना मतलबी, दौरे जुल्म रहा।।
कितना बताएं और अब उजड़ेगा वतन ऐ-
मनमस्त कैसी नींव पर, जमाना ये चल रहा।।