मेरा भारत लौटा दो 3
काव्य संकलन
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’
समर्पण
पूज्य पितृवरों के श्री चरणों में सादर
दो शब्द-
प्यारी मातृभूमि के दर्दों से आहत होकर, यह जनमानस पुन: शान्ति, सुयश और गौरव के उस युग-युगीन आनन्द के सौन्दर्य की अनुभूति की चाह में अपने खोए हुए अतीत को, पुन: याद करते हुए इस काव्य संकलन – ‘’मेरा भारत लौटा दो’’ के पन्नों को, आपके चिंतन झरोखों के सामने प्रस्तुत कर, अपने आप को धन्य मानने का अभिलाषी बनना चाहता है। सादर ।।
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’ डबरा
कोरी गर्जना--
कोरे गर्जत बदरा, इनने बूंद न डारी है।
क्या होगा आगे, जब सूखी जीवन क्यारी है।।
जेष्ठ मास-सी गर्मी देकर, तपन बढ़ाते हैं-
आश्वासन कोरे, इनके से, जनता हारी है।।
धूप-छांव सी आंख मिचौनी, नित आकर करते-
इतसे उतरवौं निकर जात, ले घटा सुकारी है।।
इनके भी व्यवहार आज तो बदले से हो गए-
आते जाते क्या बक जाते खाते दारी है।।
अनजाने से चेहरे इनके, रोज-रोज होते-
अब बरसे अब बरसे ऐसेईं निकसत द्वारी है।।
ठगियों सा व्यवहार बनाकर, रोज-रोज ठगते-
कालीदास के मेघ नहीं ये, धोखेदारी है।।
दिखने में लगते अच्छे पर दिले से हैं कारे-
सोचो तो मनमस्त, इन्हीं से दावेदारी है।।
कलम--
कलम बदनाम मत होना।
कलम निज शान मत खोना।।
तुम्हारा रूप है उजला-
खरा-सी तुम बनो सोना।।
तुम्हें नीलाम करने जो,
तुले उन साथ मत होना।।
तुम्हारी मुखर शाखें भी,
उजली ओस-सी होना।।
तुमसे झूंठ डरता है-
सच का साथ ही देना।।
खिलाफत हो भलां दुनियां-
सच के बीज ही बोना।।
कमीशन खोरियत मैंटो।
भ्रष्टाचार भी खोना।।
तेरे ही जाग जाने से-
समय मनमस्त ही होना।।
समझदारी से चलना--
अगर चांदनी रात में, देखोगे तुम ताज।
समझ न पाओगे कभी कहां खड़ी मुमताज।।
हार गए यहां पारखी, परख न पाए आज।
जहां नूर या नूर जहां, इतना गहरा राज।।
परदेशी देशी भए, देशी भए परदेशी-
धूल धूसरित गगन में, उड़े रंगीले बाज।।
रंगत का दरबार यहां, अरू रंगत का खेल-
विकते देखे टके में, सदभावों के साज।।
कालीदास भी हो गए, मौसम सौदागीर-
जेठ दोपहरी भेज रहे, मेघदूत को आज।।
वे मौसम, बिखरे, दिखे, इन्द्र धनुष के रंग-
रांझा-हीर न है कहीं, भई कोढ़ में खाज।।
कितने रंगों रंगेगा, ओ मनमस्त। बजाज-
दुनियांदारी है यही, चलो समझ के आज।।
जमाने की तासीर--
गाती रवानी में, जब भी वो नानी।
जमाने की तासीर, लिखती कहानी।।
लगाए थे पौधे, जो हमने जमीं पर-
हमको भुला कर, बे हो गए कहानी।।
उंगली पकड़ कर चलाया था जिनको-
पिलाने लगे हैं, वे हमको ही पानी।।
ऐवों के जिनके हैं अनेकों फलसफे-
बने आज बैठे वे, उपदेश रवानी।।
पुरखे भी जिनके तरसते मकाँ को-
झूले वे अबतो, हवा की झुलानी।।
पीछे की लाईन में, बैठें रहे जो-
गिनती में उंगली पै, उनकी निशानी।।
कांटों की राहैं, सजायीं थी जिनने-
मनमस्त उनकी हैं, फूलों कहानी।।
इतिहास पढ़ो--
पढ़ने को यदि मन करता तो सदाचार के पाठ पढ़ो-
गढ़ने की कुछ इच्छा तो, जीवन-मुद्रा साज गढ़ो।।
बहुत नहीं अखबारों सा जोड़-तोड़ जो इधर-उधर-
घटिया सामग्री से अच्छा, अपना सा किरदार पढ़ो।।
जिनका पानी उतर गया हो उनको भी तो क्या पढ़ना।
पानीदार जहां का पानी, पानीदारी पाठ पढ़ो।।
बाजारू दुनियां दारी है, बाजारू व्यापार हुआ-
मानव की अपनी हद की ही हकदारी को आप पढ़ो।।
विका साक बाजारों जैसा-मानव तन का गोश्त हुआ।
कितने बौने आज हुए हैं संभ्रान्तों के पाठ पढ़ो।।
शुद्धीकरण हुआ है विष भी शुध्द नही मिलता-
भारत-मां के पूतों का भी कभी तो, कुछ इतिहास पढ़ो।।
मां की ममता--
नहीं उपमान है कोई, मां की जो रही ममता।
निछावर विश्व होता है, किससे कर सकें समता।।
भोले-प्यार की मूरति, सूरत नेह की अनुपम-
सभी कुछ सौंप देती है, मां सी कौन की छमता।।
कितना नेह लेह उर में, क्षणभर भूल नहीं सकती--
जानती भूंख और प्यासें, खुद का ध्यान ही कम था।।
सुलाती प्यार बिस्तर पर बदलकर नेह बस्त्रों को।
बुलाती तोतली बोली, सिखाती बोलनी छमता।।
पकड़कर उंगलियां जब-भी चलाती कदम भर चलना-
उसी की दौड़ था जीवन, मेरा वही तो दम था।।
मां की साधना अद्भुत मां की प्रार्थना अद्भुत-
मां का दिव्य जीवन ही, मेरा सार्थक मन था।।
कितना ऋणी हूं मां का, उरिण नहीं कई जन्मों तक।
सारथी जीवनी रथ की, जीवन रण उसी दम का।।
मुझे विश्वास है उससे ही जीवन पार होऊंगा -
माँ के मस्त जीवन की, किससे हो सके समता।।
हिन्दी महिमा--
हिन्दी मां सी ममता है, जिसकी वंदना कर लूं।
हिंन्दी मां-सी छमता है, जिसको हृदय में धर लूं।।
हिन्दी प्यार दे सींची, हिन्दुस्तान की धरती-
प्यारी सभी जन भाषा, मस्तक तिलकबत धर लूं।।
इससे जन कवि तुलसी, हिन्दी के पुजारी भये।
ब्रज की माधुरी भाषा लाली, सूर उर भर लूं।।
मीरा बाबरी हो गई, कविरा करिश्मा अद्भुत।
भूषण-भाब नूतन थे, रत्नाकर रतन कर लूं।।
भरे रसखान रसरवानी-दिव्यता देव की न्यारी-
गोदी गुप्त जब बैठे, भाव प्रेमचन्द्र के हर लूं।।
दिनकर हो गए दिनकर, प्रसादी, पंत की धरती-
लिखी झांसी की रानी जो सुभद्रा ओज उर भर लूं।।
प्यार मनमस्त मन भारी, हिन्दी राष्ट्रभाषा हो--
इसी की गोद में पलकर, अपने को उरिण कर लूं।।