मेरा भारत लौटा दो 10
काव्य संकलन
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’
समर्पण
पूज्य पितृवरों के श्री चरणों में सादर
दो शब्द-
प्यारी मातृभूमि के दर्दों से आहत होकर, यह जनमानस पुन: शान्ति, सुयश और गौरव के उस युग-युगीन आनन्द के सौन्दर्य की अनुभूति की चाह में अपने खोए हुए अतीत को, पुन: याद करते हुए इस काव्य संकलन – ‘’मेरा भारत लौटा दो’’ के पन्नों को, आपके चिंतन झरोखों के सामने प्रस्तुत कर, अपने आप को धन्य मानने का अभिलाषी बनना चाहता है। सादर ।।
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’ डबरा
कल का दौर--
देखा है सबने, कल जो कुछ हुआ।
कितने अजीब थे वे, खोदे जिन कुआ।।
उनकी अजीब चालैं, समझे नहीं थे वे-
अपने ही हाथों अपनी, बस्ती को जला दिया।।
देखा सभी ने नाटक, खेला जो यहां गया-
कितना भयानक दंगा, कैसे जो यहां हुआ।।
केवल तुम्हारे हाथों, उनने ही आग दी-
रक्खा तुम्हारे कंधों, अन्याय का जुआ।।
मरते रहे थे तुम ही, अपने ही आप में-
कितने अजूब रंग का, हुल्लड़ जो यहां हुआ।।
पूरा किया था उनने, जो मन गुबार था-
देखा सभी ने, फिर भी, अनदेखा वो हुआ।।
ओटों में खेलते हैं, वोटों के खेल वे-
शकुनी अजीब पांसे, चौसर जो यहां हुआ।।
खाए हो मात खुद ही, अपनी ही चाल से-
पिंजड़े में आज फंस गया, मनमस्त सा सुआ।।
अभी ना जगे--
बनाना कहा था, मिटाने लगे हो।
गहरी सी नींदों में, अभी ना जगे हो।।
प्रश्नों के मंजर, खड़े सामने हैं-
करो सामना अब, क्यों कर भगे हो।।
गढ़ी हैं निगाहें तुम्हारे कदम पर-
अपनों से धोखा, किसके सगे हो।।
सवालों खड़ा है, गुनाहों का मंजर-
बेशर्मी लादें, फिर भी खगे हो।।
तुमने किया जो, कहर सामने है-
अपने गुनाहों को, कैसे ढके हो।।
निगाहैं झुकीं हैं, निगाहैं उठाते-
कैसी निगाहों में, तुमतो पगे हो।।
मंडरा रहे हैं, प्रश्नों के साए-
मनमस्त अब भी, तुम ना जगे हो।।
द्वेष के बीजे--
द्वेषों को पालें, कब तक रहोगे।
किस-किस के द्वेषों को, कहते रहोगे।।
द्वेषों-गुणों से बनी है ये अबनी-
पहिचान गुण की, फिर कैसे करोगे।।
कहते हैं हंसो, को, नीर-क्षीर विवेकी-
करना यही है, तब मानव रहोगे।।
मानव बनो, मानवी को संभालो।
मानव है द्वेषी, यह कब तक सहोगे।।
रहेंगे नहीं द्वेष, खुद को निहारो-
खुद की खुदाई में डूबे रहोगे।।
बोओ नहीं द्वेष के बीज अब तो-
मनमस्त होकर के, जीते रहोगे।।
विपल्बी घटा है---
लम्बे ही हाथों, बटौना बटा है।
लम्बे ही हाथों, बटौना बटा है।।
नियम ताक बैठे, रूआंसे हुए हैं।
कितना कहैं कद, उनका घटा है।।
इतना बढ़ा मौन, बोले न कोई-
लगता यहां, आसमां भी पटा है।।
सब कुछ यहां, पर बताना कठिन है-
मंजर पै मंजर, कितना अटपटा है।।
छोड़कर न्याय-नीति, सभी काम होते-
दक्षिणा का चलन, वो भी कितना घटा है।।
लगीं हैं यहां, अस्मतों की दुकानें-
उनकी भी राहों का, रस्ता पटा है।।
विवस को विवस, कितना करते यहां हैं-
जुबानें दबी हैं और सब कुछ दबा है।।
इन्हें नेक राहौं पै, लाओ तो कोई-
संभालो संभालो, विपल्वी घटा है।।
किया खास कुछ ना---
किया खासअ कुछ ना, वो बकते रहे।
औरों के दोषों को, तकते रहे।।
इधर से उधर और उधर से इधर-
दौड़-धूपों में कोरे ही भगते रहे।।
आएगी नव सदी, केवल किस्सा हुई-
मनकी बातें हुयीं, मनके अरमां रहे।।
कितने नाटक लखे, आंख पथरा गई-
अंगूठा दिखाते सभी कहकहे।।
कितने बोझों दबा, आज का आदमी-
बताना कठिन है, वे कितने बहे।।
जल जले जाल उलझे, न सुलझे कभी-
कितने किस्से यहां पर सदी ने कहे।।
चौराहे घटे, बन तिराहे गए-
कोई मनमस्त होकर, क्या इनमें रहे।।
पर्यावरण कैसा--
पर्यावरण कैसा- यहां हो गया है।
मौसम सुहाना कहां, बो गया है।।
कटें पेड़, तख्त, ताज बनते यहां हैं-
सावन का साया, यहां से गया है।।
कोयल की कूकें, न चुनमुन की चुलबुल-
हलबाहा, हल विन बेहाल हो गया है।।
सुबह कब हुआ, कोई पक्षी न बोला-
पपीहे का पी-पी, कहां सो गया है।।
मुर्गे कहां-रात कैसे बिताएं-
बिना पेड़ पतझड़ जहां हो गया है।।
सुनसान हलचल है, सुनसान दुनियां-
सुनसान आकर यहां सो गया है।।
हरितमा जहां हो, कोई तो जागो-
लाओ उसे जो यहां से गया है।।
दो टूक--
तुम्हारे चलन का, यहां क्या सिलसिला है।
जनहित में लड़ते ना, यह बस गिला है।।
साजे, सजे तुम, छल औ कपट के-
अब तक न तुमसे कुछ भी मिला है।।
बादे तुम्हारे अधूरे हैं अब तक-
झूंठी कहानी का गुल ना खिला है।।
उधर तुमने महलों से रंग दी जमीं को-
इधर मेरी बस्ती का, तिनका जला है।।
इतने न उछलो, न भूलो इधर को-
तुम्हारा चमन फूल हमसे खिला है।।
मन तस्वीरें, लगती हैं, मैलीं तुम्हारी-
हमें पीर देने का अवसर मिला है।।
टूटेगी जिस दिन, ये चुप्पी हमारी-
किसी को कहीं भी, न रस्ता मिला है।।
अपनी हदों पर, रहलो संभल के-
दो टूक मनमस्त कहते मिला है।।
शीत-कक्षों--
इन्हीं शीत-कक्षों रहे हो सभी।
धूप का दर्द, देखा नहीं है कभी।।
सूर्य की रोशनी जो, किते रंग रंगी।
पढ़ी है जो केवल, किताबों सभी।।
पसीने की दावत है कितनी खरी-
गही हाथ तुमने कुदाली कभी।।
शीत, वर्षा की रातों से, क्या बात की।
जमीं पर चले, जो बर्फ से जमीं।।
गर इतना नहीं, तो तुम्हें हक नहीं-
नियम की ये फाईल बनाते सभी।।
चले ना सियासत कभी कागजों-
बाहर आके, जरा भी तो देखो कभी।।
रात के गीत, झिल्ली की तानें सुनों-
गंध सौंधी लयी क्या असाढ़ी कभी।।
लगा- देश, तुमसे ये संभला नहीं-
बख्तर, मनमस्त अपने उतारो सभी।।
शहर कहां--
बहुत ढूंढ़ा मगर शहर कहीं ना मिला।
जिससे पूंछा, वही गांव का ही मिला।।
है कहां वो शहर, कोई खोजो उसे-
नाम का बस शहर, यही सिलसिला।।
इतने मंदिर, मस्जिद, गढ़ औगढ़ी-
सबके नामे लिखा, कोई गामे मिला।।
गांव होता सदां से ही पहले-पहल-
बाद में शहर, वो ही बना है जिला।।
आप पूंछें किसी से, सभी गांव हैं।
हम फलों गांव के, न कोई शहरी मिला।।
गांव आकर बसे, वो कहाते शहर-
गांव का देश मेरा, मुझे यहां मिला।।
दर्द शीनों में अब भी लिए गांव है-
पसीने कहानी लिए सब मिला।।
जो गुमी पीढि़यां, टोह की फौन पर-
सबके नामे में गामे, शहर ना मिला।।