मेरा भारत लौटा दो 6
काव्य संकलन
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’
समर्पण
पूज्य पितृवरों के श्री चरणों में सादर
दो शब्द-
प्यारी मातृभूमि के दर्दों से आहत होकर, यह जनमानस पुन: शान्ति, सुयश और गौरव के उस युग-युगीन आनन्द के सौन्दर्य की अनुभूति की चाह में अपने खोए हुए अतीत को, पुन: याद करते हुए इस काव्य संकलन – ‘’मेरा भारत लौटा दो’’ के पन्नों को, आपके चिंतन झरोखों के सामने प्रस्तुत कर, अपने आप को धन्य मानने का अभिलाषी बनना चाहता है। सादर ।।
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’ डबरा
कृषक कहानी-
अगर कुछ कहना तुझे, कृषकों कहानी कह।
कर्ज में कितने मरे, वतने कहानी कह।।
घनी सी चीत्कारों में, अमन की दास्तां कैसी।
किधर को जा रही कश्ती, कहानी वो कहानी कह।।
वतन के पहरूए सोए अथवा ये खुमारी में।
मजहबी दौर था कैसा बही दर्द कहानी कह।।
ख्वाब में डरते रहे अब भी-देश के बच्चे-
सनसनाती गोलियों की, वो कहानी कह।।
मौत कितनों की हुई, और जेल में कितने-
लट्ठ खाते रहे, दम से, झेलते सब सह।।
किस कदर दौड़ी सियासत, भुलाने गम को-
तौल नोटों से करी उसकी कहानी कह।।
किस कदर था वोट मंजर, सभी ने देखा-
मीडिया की बात छोड़ो, आपुन बीती कह।।
वतन को, वतन रहने दो, कसम है तुमको-
वतन की खातिर, वतन मनमस्त हो कर रह।।
आज भी--
बदलता मौसम लगा क्यों आज भी-
सूर्य पर किसका हुआ, हक आज भी।।
चढ़ रही काली घटा क्यों भोर से-
धुन्ध भी बतला रही नहिं, राज भी।।
मौत के सामा सिमटते आ रहे-
हैं कहीं गड़बड़ लग रही, आज भी।।
धूप का साया लगा कंपन भरा-
पास की बस्तु न दिखती, आज भी।।
हर तरफ कोई कहीं है, यौं लगे-
भय भरा वातावरण क्यों, आज भी।।
आज आजादी का चहरा, क्या हुआ।
तीन में दो झोंपड़ी खाली दिखी हैं आज भी।।
सोच था जो, क्यों लगा लकबा उसे-
आस के बदरा न बरसे, आज भी।
पूंस में ही जेठ रातें, सोच कुछ-
है नहीं मनमस्त कोई, आज भी।।
जमाने की दौड़--
बदला आज जमाना कितना, भीड़ भरा व्यवहार है।
कोई सुनता नहीं किसी की, कितना बड़ा बाजार है।।
खो जाता इंसान यहां पर, अपनों की उस भीड़ में-
फूल समझ कर, फूलाफिरता, किन्तु रहा बह खार है।।
मैंने खूब पुकारा, लेकिन, सुना न उनने-
क्यों सुनते, उन पर भी कोई भार है।।
गहरे कोलाहल ने, अब तक कान न खोले-
बोला-पगले। कानों का कच्चा, पूरा संसार है।।
अरमानों की यहां जल रही होली रोजयी-
तूं बहता है, धार समूहा- भारी गहरी धार है।।
मना किया, फिर भी नहिं माना उल्टा चलता।
अगर गया तूं चूक राह से, मिले न कोई सार है।।
अब भी, समझदार कुछ हो जा, चलो संभल के-
यह मनमस्त जमाना, इसकी गहरी मार है।।
बटबारा--
मैंने बहुत डांटा है मगर तुमने ही है बांटा।
नियत में खोट है अब भी मुझको है यही कांटा।।
मां को बांटते, तुमको, अच्छा क्या लगा होगा।
यही नासमझी रोती हूं तुमने मुझे छांटा।।
इतना बुहत कुछ लेकर भी, मंशा नहीं हुई पूरी-
सब कुछ काट डाला है, केवल शिर नहीं काटा।।
तुले क्यों आज शिर काटन, तुम्ही तो लाडले मेरे-
दिए बलिदान भी तुमने तुम्हें लख हृदय ही फाटा।।
कितना और काटोगे, तुम्हारी नियत खोटी है-
इस तरह बच सकूंगी क्या, उठता ज्वार औ भाटा।।
कितना खूं-खराबा है, अब भी मान कुछ जाओ-
दुनिया हंस रही तुम पर, मां को खूब ही काटा।।
मेरे दर्द को समझो, मेरी मान जाओ अब-
न आओ गैर के कहने, मैं नहिं प्यार ही बांटा।।
नहीं हो दूसरे कोई, मेरे लाड़ले तुम हो-
मुझे मनमस्त रहने दो तुमसे यही है नाता ।।
समय के विपरीत--
लोग ऐसे ऐसे आ रहे हैं-
समय के विपरीत गाने गा रहे हैं।।
बड़ा ठेका लेकर यहाँ बनाने का।
मंजिलों को मिटाते ही जा रहे हैं।।
चिराग जलाते हैं उजालों के लिए।
वे ही, आशयाना, जला रहे हैं।।
धूप के तैवर हुए बदनाम इतने-
जलजलों में, जलजले ही ला रहे हैं।।
बाग के माली की मंशा नेक नहिं-
अमन की कलियां मसलते जा रहे हैं।।
आज की उल्टी व्यवस्था देखकर-
पत्थरों के दिल-पिघलते जा रहे हैं।।
आदमी की बात कितनी क्या कहूं-
यहां फरिश्ते भी बदलते जा रहे हैं।।
देश की हालत बिगड़ती देखकर-
मनमस्त आंसू भी मचलते जा रहे हैं।।
अम्न आएगा--
बदलाव होगा, क्या कभी परिवेश में।
अम्न आएगा कभी, क्या देश में।।
निकलते ही किरण कैसी हो गई-
आ रही हैं, ले अंधेरा देश में।।
खौंफ की बारात क्यों आती यहां-
नेह होता क्यों नहीं आदेश में।।
तुम भलां गहरे समुन्दर से रहो-
थाह आऐगी कभी तो, केश में।।
समय के तूफान के अरमान भी-
एक दिन तो आएंगे वे शेष में।।
मंजिलों का छोर होता है सदां-
चाल अपनी से चलो, खामोश में।।
कलम को साधो, कलम के पारखी-
आएगा मौसम कभी तो होश में।।
वादा निभाओ--
आदमी होकर अभी भी, आदमीयता को बचाओ।
गर किया वादा किसी से, गौर कर उसको निभाओ।।
काल तुमने ही कहा था, देश को सुन्दर बनाना।
आज कैसी हालतें हैं, हालतों को भी मिटाओ।।
टाट पट्टी की घसीटन, आज भी रटते पहाड़े-
बोलते अ से अनार ही, और च से चरखा चलाओ।।
श्रमिक का बहता पसीना, पेट चिपका पीठ से है-
कृषक डूबा कर्ज में है, कर्ज दे, कर्जा मिटाओ।।
आज भी रनियां विचारी, भूंजते आलू मिली है-
बीनते पन्नी मिले हैं, बालकों को तो पढ़ाओ।।
देखने देते नहीं हैं, महल के रंगीन शीशे-
अगर कुछ करना चाहो तो रंग भरे शीशे हटाओ।।
शहर होती अब नहीं है, आपकीं बेमानियां ये-
आसमां से बात क्यों, मनमस्त धरती पै तो आओ।।