कहानी – भानगढ़ का रहस्य
साल 1971 का एक सर्द दिसंबर महीना था। सूरज ढलते ही अंधेरा जैसे ज़मीन को निगलने लगता था। तीन दोस्त अर्जुन, रमेश और दीपक दिल्ली से घूमने निकले थे। लोककथाओं में सुनी थी उन्होंने भानगढ़ की कहानियाँ… लेकिन युवावस्था की बेफिक्री में उन्हें ये सब सिर्फ अफवाहें लगीं।
"कौन सा भूत! सब बकवास है," रमेश ने हँसते हुए कहा, जब वो भानगढ़ के खंडहरों में दाखिल हुए।
गेट पर लगे बोर्ड को सबने नजरअंदाज कर दिया –
"सूर्यास्त के बाद प्रवेश वर्जित है। Archeological Survey of India"
धीरे-धीरे अंधेरा गहराता गया। खंडहरों में गूंजती हवाओं की आवाज़ जैसे किसी के रोने की आह बन गई थी। वो तीनों एक पुराने मंदिर के पास रुके, जहां एक टूटा-फूटा झूला लटक रहा था। दीपक ने झूले को हिला दिया मज़ाक में। लेकिन तभी..झूला खुद-ब-खुद ज़ोर से झूलने लगा। हवा पूरी तरह थमी हुई थी… पर वो झूला ऐसे हिल रहा था जैसे कोई अदृश्य बच्चा उस पर बैठा हो।
"तुमने देखा?" अर्जुन फुसफुसाया।
तभी मंदिर के अंदर से एक औरत के रोने की धीमी सी आवाज़ आने लगी। वो तीनों डर के मारे वहीं पत्थर की तरह खड़े हो गए। दीपक ने टॉर्च निकाली, लेकिन जैसे ही उसने मंदिर की ओर रोशनी की… एक कटी गर्दन वाली औरत सामने खड़ी थी। उसकी आँखें नहीं थीं… बस दो काले गड्ढे… और होंठों से खून बह रहा था।
"मुझे मेरा बच्चा दो..." वो फुसफुसाई।
और तभी रमेश ज़ोर से चिल्लाया, "भागो!"
पर भागना इतना आसान नहीं था। पूरी हवेली जैसे ज़िंदा हो गई थी। दीवारों से खून बह रहा था, ज़मीन पर अजीब से मंत्र खुद-ब-खुद उभरने लगे थे, और मंदिर के बाहर की मूर्तियाँ रोने लगी थीं। किसी तरह जान बचाकर अर्जुन भाग सका… सिर्फ अर्जुन। आज 50 साल बाद भी अर्जुन पागलखाने में बंद है। उसकी जुबान से सिर्फ एक ही बात निकलती है—
"उसने कहा था… मुझे मेरा बच्चा दो… और रमेश को वो ले गई…"
पर कहते हैं… आज भी अगर कोई सूरज ढलने के बाद भानगढ़ जाता है… तो एक झूला अपने आप झूलने लगता है… और मंदिर से किसी औरत की चीखें सुनाई देती हैं।