तुम्हारी माँ
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बचपन से बापू को देखा था, हमेशा शराबी ही दिखे , कभी उनमें पिता की झलक दिखी ही नहीं ।
लंबा कद, मजबूत हाथ, झुके हुए कंधे, चाल लड़खड़ाती , हाथ में दारू का बोतल। यही थी मेरे बापू की पहचान !
जब भी उन्हें घर में प्रवेश करते देखता , मैं कांप उठता, आते ही वो माँ पर बरसते, गाली के साथ बातें करते । माँ सहमी-सहमी सी रहती, कभी बापू से उसे थप्पड़ भी खानी पड़ती ! बस, विलखते हुए वो एक ही बात कहती, " छोड़ दो , मत मारो !"
उस समय मेरा मन करता बापू को धक्के मारकर बाहर कर दूँ, पर ऐसा कर नहीं पाता ! वो पिता थे ... !
माँ के ऊपर जब नजर ठहरती, जैसे कोई साक्षात देवी हो । दिनभर पूजा करती, जो खाना बनाती पहले मुझे खिलाती, फिर बापू को देती, अपने लिये क्या रखती... मैंने नहीं जाना!
छोटी उम्र से यही सब देखा ...पिता की दहशत और माँ का समर्पण ।
बापू के बारे में जब भी माँ से कुछ पूछता, वो कहती," तू अभी बच्चा है, जा बाहर खेल।" मेरा प्रश्न हरबार अनुत्तरित रह जाता !
एक दिन बापू पीकर आये और मुझसे बकझक करने लगे, दो थप्पड़ कस के जड़ दिए !
देखते ही माँ रोटी बनाना छोड़ , बेलन लेकर दौड़ पड़ी , बेलन से बापू के सिर पर प्रहार किया । जैसे उस दिन माँ के देह पर देवी सवार हो गई हो ।
कटे वृक्ष की तरह बापू गिर गए । सिर से लहू बह रहा था, शुन्य नजरों से वो मेरी ओर ताकने लगे । लेकिन, माँ की आँखों में अभी भी नफ़रत भरा था । फिर भी वो बापू के सिर से बहते लहू को साफ करने लगी।
बापू के करीब मैं आना चाहा । लेकिन , माँ ने रोक दिया । मेरी तरफ देख कर बोली , "इन्हें मैं अकेले संभाल लूंगी , जा पढ, जिंदगी संभाल । तेरे बापू का साया, मैं कभी तुझपर नहीं पड़ने दूंगी । हाँ, ध्यान से सुन ले... तुम्हारे बाप की पत्नी नहीं , मैं तुम्हारी माँ कहलाना चाहती हूँ ।"
मैं विचारशून्य खड़ा.... माँ को देखता रहा। मुझे लगा, माँ बोलेगी, " अभी तू बच्चा है, जा खेल बाहर ।"
मिन्नी मिश्रा/ पटना
मौलिक©®