* मैं ...बेचारी *
अब छोड़ चलूँ ...
ये प्यार, ये मोहब्बत ,
रंगीन ख्वाबों की ये हसरत ...!
कुछ नहीं , सब बकवास है !
ना हँसाती है और ना रूलाती है,
पेंडुलम की तरह , केवल झूलाती है ।
बहुत खेल लिया यह नाटक,
हाँ, मैं भी अब समझने लगी हूँ ,
इस मतलबी दुनिया में...
सबको अपनी पड़ी है,
दूसरे को जानने - समझने की ,
फुर्सत, कहाँ ? किसको पड़ी है !?
पर, ये नादान दिल !
उफफफ ! मानता कहाँ !
फिसलता है ,गिरता है,
फिर भी उधर ही दौड़ पड़ता है ।
सुनता है... जब , वही ....
पुरानी, मीठी सी लुभाने वाली आवाज़ ...
...... "सुनो...मैं तुमको बहुत प्यार करता हूँ... । "
ओह! फिर वही आवाज.! ऐसा कहकर
मैं , झट, वहाँ से बैरंग लौट आती हूँ ।
लेकिन , मेरा मासूम दिल, वहीं अटक जाता है !
फिर ,वापस लौटकर , ठसक से पूछता है ,
अरे...तुम क्यों लौट आयी ? वही था ना तेरा पहले वाला ......?
मैं , हतप्रभ ... उसे एकटक देखती रह जाती हूँ ।
हठात् , उसका यह सवाल, मुझे कटघरे में लाकर खड़ा कर देता है , 'बताओ ... तुम,
क्यों खुद को बंधी हुई अब भी पाती हो ?'
सवाल के इस कटघरे में .. अकेले खड़ी ...
... अनुत्तरित, मैं उलझी हुई ...
एक बेचारी बन , ठगी सी रह जाती हूँ !
मिन्नी मिश्रा/ पटना
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