सुधार बनाम चेतना — एक दार्शनिक आलोचना ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
प्रस्तावना
समाज में सुधार — चाहे वह शिक्षा, न्याय, धर्म, संगठन या जेल-प्रथा के रूप में हो — सदियों से चलता आया है।
हर युग ने अपनी तरह के उपाय गढ़े, यात्राएँ कीं, क्रांतियाँ छेड़ीं।
फिर भी प्रश्न वही ठहरा रहता है:
क्या वास्तव में कोई सुधार संभव है —
या यह केवल एक सूक्ष्म आत्म-वंचना है?
सुधार की सीमा
हर सुधार अंततः उसी जड़ता में लौट आता है,
जहाँ से वह भागना चाहता था।
पुराने नियम, नयी भाषा में दोहराए जाते हैं;
व्यवस्थाएँ चलती रहती हैं, पर भीतर से मर चुकी होती हैं।
कानून चाहे कितना मानवीय हो जाए,
उसकी आत्मा अक्सर अनुपस्थित रहती है।
सुधार के सारे प्रयास समाज के बाहरी ढांचे को छूते हैं,
भीतर की चेतना को नहीं।
चेतना की अनिवार्यता
सच्चा परिवर्तन वहाँ से शुरू होता है
जहाँ सुधार की मशीनरी समाप्त हो जाती है।
आत्मा का स्पर्श,
भीतर की रोशनी का अनुभव —
यहीं से नया समाज जन्म ले सकता है।
जब तक मनुष्य अपने ही भीतर
उस चेतना को नहीं पहचानता,
सारी योजनाएँ अधूरी और निस्सार रहेंगी।
सुधार: मिथक या मजबूरी
सुधार का विचार दिखने में क्रांतिकारी है,
पर उसके भीतर गहरा भ्रम छिपा है।
मरती हुई व्यवस्थाएँ, जड़ मानसिकता,
और यांत्रिक समाज —
इनसे किसी जीवंत परिवर्तन की अपेक्षा
मात्र आशा का व्यापार है।
सुधार के सारे प्रयोग बाहर से थोपे गए संवाद हैं;
भीतर कोई नदी नहीं बहती।
आध्यात्मिक विकल्प
एक ही संभावना बचती है — चेतना का विकास।
यह सुधार का विरोध नहीं,
बल्कि उसका उत्कर्ष है।
जागरूकता, आत्म-प्रश्न, और मौन की साधना;
विज्ञान की दृष्टि और उपनिषद की अनुभूति;
विवेक और प्रज्ञा का मिलन —
यही वह भूमि है जहाँ समाज पुनः जीवित हो सकता है।
> “प्रत्येक बाहरी व्यवस्था, चेतना-जागरण के बिना,
एक मृत घाटी बन जाती है।
यह सत्य पत्थर पर लिख देने जैसा अटल है।”