अगर मुग़ल-फ़िरंगी को जूता पड़ा होता,
तो शायद आज अदालतों में आत्मा खड़ी न होती।
हम तब सोए थे—नींद मीठी थी,
अब जागे हैं—तो नींद कड़वी लगी।
जूता अब प्रतीक है—अपमान का नहीं,
सवाल का है, जो हवा में घूमता हुआ
कहीं न्याय के दरवाज़े पर ठहर जाता है।
सुबह का भूला लौटा है शाम,
राम की लौ में बुद्ध की बात है,
कृष्ण की हँसी में शिव का विराम।
तीनों मिलकर पूछते हैं—
“अब भी चुप रहोगे, या बोल उठोगे?”