स्त्री समानता के नाम— मौलिकता का नाश न करे ✧
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समानता का अर्थ यह नहीं कि दोनों एक जैसे बन जाएँ।
समानता का अर्थ है — भिन्न होकर भी पूर्ण होना।
स्त्री को समानता देना, यह नहीं कि उसे पुरुष बना दिया जाए।
स्त्री तब ही समान होती है जब पुरुष अपने भीतर की गहराई पर खड़ा हो सके —
जहाँ दोनों की भिन्नता विरोध नहीं, पूरक बन जाती है।
आज सभ्यता लिंगभेद मिटाने की बात करती है।
पर जहाँ जड़ स्तर पर लिंग मिटते हैं,
वहाँ आत्मा मर जाती है और मशीनें जन्म लेती हैं।
यह “लिंग-मुक्त समाज” नहीं, आत्मा-मुक्त युग है।
जहाँ सब कुछ गिना जाता है, पर कुछ भी महसूस नहीं किया जाता।
स्त्री की मौलिकता — उसकी श्री —
मौन, करुणा और सृजन की लय में खड़ी है।
वह देह नहीं, भाव है;
वह इच्छा नहीं, आह्वान है।
उसकी नारीत्व में ही धर्म का बीज छिपा है।
पुरुष उस तल पर खड़ा नहीं हो सकता,
वह केवल प्रेम कर सकता है, श्रद्धा कर सकता है —
यही उसका धर्म है।
पर पुरुष प्रेम नहीं कर पाता —
इसलिए वह भेद मिटाना चाहता है।
क्योंकि भेद में ही उसका दर्प टूटता है,
और झुकना उसे मृत्यु-सा लगता है।
प्रेम झुकना है —
और पुरुष झुकना नहीं जानता।
तो उसने चाल चली —
भेद मिटा दो, ताकि प्रेम की ज़रूरत ही न रहे।
पर उस मिटाने में ही प्रेम खो गया।
अब समानता नहीं बची — केवल प्रतियोगिता बची।
यह पुरुष का पुराना खेल है —
पहले उसने स्त्री को पर्दे में रखा,
क्योंकि उसकी गहराई से डरता था।
अब उसे पुरुष बनाकर मैदान में उतारा,
ताकि दोनों एक ही धरातल पर लड़ें,
और उसकी हार किसी को न दिखे।
दोनों ही स्थितियों में स्त्री हारी —
पहले मौन खोया, अब लय।
पुरुष ने स्त्री को नहीं समझा,
और यही उसकी कमजोरी है।
स्त्री ने पुरुष को नहीं समझा,
यह उसकी सरलता है।
पुरुष ने अपनी कमजोरी छिपाने के लिए
स्त्री की मासूमियत को नादानी कह दिया,
और उसकी नादानी को सिद्धांत बना दिया।
अब प्रेम नहीं रहा —
अब बुद्धि है, तर्क है, बराबरी का शोर है।
और इसी शोर में आत्मा की धड़कन खो गई।
लिंग का भेद मिटाना नहीं चाहिए,
उसे समझना चाहिए।
क्योंकि वही भेद सृष्टि की लय है,
वही मिलन का रहस्य है।
स्त्री जब श्री में खड़ी होती है —
संसार सुगंधित होता है।
पुरुष जब श्रद्धा में झुकता है —
धर्म जाग्रत होता है।
समानता का अर्थ है —
दोनों अपने स्वरूप में पूर्ण हों।
तभी प्रेम संभव है,
तभी जीवन आत्मा का उत्सव बनता है।