गुरु की बात बहुतों के लिए पवित्र है — इतनी पवित्र कि वहीं ठहर जाते हैं।
जहाँ यात्रा शुरू होनी थी, वहीं मन्दिर बन जाता है।
कहते हैं — “गुरु बिना संभव नहीं।”
पर यह वाक्य धीरे-धीरे भीतर की स्वतंत्रता को घेर लेता है।
मन को सहारा मिल जाता है, ज़िम्मेदारी छूट जाती है।
फिर आत्मा नहीं चलती — चलाता है डर।
डर कि अगर गुरु से हट गया तो भटक जाऊँगा।
यही पकड़ है।
गुरु के नाम पर मन ने एक नया बन्धन गढ़ लिया।
जो मार्गदर्शक था, वह अब मापदंड बन गया।
जो दीया था, वही सूर्य बन बैठा।
गुरु का अर्थ था — जो भीतर की यात्रा को आरम्भ कराए।
पर जब वही भीतर जाने की जगह बाहर ठहर जाए,
तो शिष्य स्थिर नहीं, जड़ हो जाता है।
माँ, बाप, समाज — सबके बाद अगर गुरु भी आत्मा की जगह ले ले,
तो फिर आत्म-विकास सम्भव नहीं रहता, बस परजीवी जीवन रह जाता है।
थोड़ी हिम्मत चाहिए —
गुरु को छोड़ने की नहीं,
गुरु को अपने भीतर ढूँढने की।
गुरु को त्यागने की नहीं,
गुरु से आगे बढ़ने की।
डर मत कि ऐसा करने से श्रद्धा मर जाएगी।
जो श्रद्धा टूट जाए, वह श्रद्धा थी ही नहीं — वह डर थी।
सच्चा गुरु चाहता है कि तुम मुक्त हो,
न कि उसकी छाया में स्थायी होकर रहो।
आख़िर गुरु का कार्य दीप बनना है,
दीपक का नहीं कि तुम उसी में जलते रहो।
उस रोशनी को भीतर उतरने दो —
फिर वही प्रकाश तुम्हारा अपना हो जाएगा।
गुरु पकड़ नहीं, पुल है।
पुल को पूजना नहीं, पार करना होता है।