Hindi Quote in Quotes by Vedanta Two Agyat Agyani

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✧ भोग और बोध का रहस्य ✧

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प्रस्तावना

धर्म हमेशा या तो भोग के खिलाफ खड़ा दिखता है, या बोध को भविष्य में टाल देता है।
गुरु और शास्त्र मार्ग बेचते हैं—लंबी यात्रा, तपस्या, नियम, पाप–पुण्य की गिनती।
पर जीवन की सच्चाई सरल है:
भोग और बोध दो विरोधी नहीं, एक ही धारा के दो पहलू हैं।

भोग अगर अंधा है, तो बंधन है।
भोग अगर जागरूक है, तो वही प्रसाद है।
बोध अगर जीवन से भागा हुआ है, तो सूखा है।
बोध अगर जीवन को जीकर खिला है, तो वही मोक्ष है।

यह ग्रंथ इसी रहस्य को खोलता है।


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✧ अध्याय 1: ईश्वर पाने का प्रश्न ही क्यों गलत है?

लोग पूछते हैं: “ईश्वर कैसे मिलेगा?”
पर यह प्रश्न ही पहली भूल है।
क्योंकि पाने का मतलब है—ईश्वर कोई बाहर की वस्तु है।

सत्य यह है:
ईश्वर कोई वस्तु नहीं, कोई उपाधि नहीं।
ईश्वर = जीवन।
और जीवन पहले से भीतर है।

तो सही प्रश्न है: क्या मैं सचमुच जी रहा हूँ?

शास्त्र-संकेत:

“नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः…” (कठोपनिषद् 1.2.23)

कबीर: “मोको कहाँ ढूँढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।”



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✧ अध्याय 2: जीना ही मोक्ष है

जो जीवन को नहीं जीता, उसे लगता है: “मोक्ष शेष है, ईश्वर अभी पाना है।”
पर जिसने जीवन को गहराई से जिया, वह जानता है: जीवन ही मोक्ष है।

मोक्ष कोई भविष्य नहीं, यह वर्तमान का स्वाद है।
हर अनुभव में उतरकर, हर सुख–दुःख को बोध से जीकर—
यही मुक्ति है।

शास्त्र-संकेत:

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” (गीता 2.47)

बुद्ध: “अप्प दीपो भव।”



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✧ अध्याय 3: पाप–पुण्य की भ्रांति

धर्म कहता है: “यह पाप है, यह पुण्य।”
पर असली कसौटी सिर्फ एक है—बोध।

गलती = पाप नहीं।
बिना बोध के जीना = पाप।
अनुभव से जागना = पुण्य।

शास्त्र-संकेत:

रैदास: “मन चंगा तो कठौती में गंगा।”

कबीर: “जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।”



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✧ अध्याय 4: भोग से बोध तक

भोग का असली अर्थ है: हिस्सा, अंश, प्रसाद।
जब भोग अज्ञान में है, तो वह नशा और बंधन है।
जब भोग बोध के साथ है, तो वह प्रसाद और मुक्ति है।

भोग + अज्ञान = गिरावट।
भोग + बोध = उत्थान।

शास्त्र-संकेत:

“यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।” (गीता 2.52)

संत वाणी: “भोग भोग में बोध हो, तो भोग न बंधन होय।”



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✧ अध्याय 5: त्याग का असली अर्थ

धर्म त्याग को आयोजन बना देता है—
नियम, व्रत, घोषणा।
पर त्याग कोई आयोजन नहीं, त्याग = परिणाम है।

जब बोध आता है, इच्छाएँ अपने आप झर जाती हैं।
जैसे पका फल पेड़ से गिरता है।
विकास का संकेत त्याग है, ज़बरदस्ती नहीं।

शास्त्र-संकेत:

“त्यागो हि परमो धर्मः।” (गीता 18.66 भाव)

“यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा…” (कठोपनिषद् 2.3.14)



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✧ अध्याय 6: जीवन = भोग और संन्यास का खेल

भोग और संन्यास विरोधी नहीं।
जीवन एक धारा है—हर पल भोग, हर पल संन्यास।
पूरा जिया हुआ भोग अपने आप संन्यास बन जाता है।
और संन्यास में नया भोग जन्म लेता है।

जीवन = नृत्य।
भोग और संन्यास दोनों इस नृत्य के कदम हैं।

शास्त्र-संकेत:

“क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति…” (योगवाशिष्ठ)

बुद्ध: “अनित्य”—हर क्षण नया जीवन।



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समापन

भोग और बोध दो विरोधी नहीं।
भोग में बोध हो तो वही प्रसाद है, वही संन्यास है।
त्याग तब होता है जब आत्मा खिलती है, जब जीवन सच में जिया जाता है।

ईश्वर कोई पाने की चीज़ नहीं,
वह तो जीने की कला है—अभी, यहीं।

जीवन ही मोक्ष है।
भोग ही मार्ग है।
और बोध ही उसका रहस्य

Hindi Quotes by Vedanta Two Agyat Agyani : 112000970
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