✧ स्त्री और पुरुष — मौलिकता का संतुलन ✧
स्त्री और पुरुष दो ध्रुव हैं।
दोनों के बिना जीवन अधूरा है।
परंतु यह अधूरापन केवल संग से नहीं मिटता,
बल्कि तब मिटता है,
जब दोनों अपनी-अपनी मौलिकता में खड़े होते हैं।
स्त्री संवेदना है, करुणा है, मौन की गहराई है।
पुरुष साहस है, शक्ति है, खोज का पथिक है।
एक बाहर का विस्तार है,
दूसरी भीतर की गहराई।
जब पुरुष अपने भीतर स्त्री का स्पर्श जगाता है,
और स्त्री अपनी मौलिकता को बचाए रखती है,
तभी पूर्णता जन्म लेती है।
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✧ समानता का भ्रम ✧
आज कहा जाता है —
"स्त्री को समानता दो।"
पर यह कैसी समानता है,
जहाँ स्त्री को अपनी मौलिकता छोड़कर
पुरुष जैसा बनना पड़े?
समानता का अर्थ नकल नहीं है।
यह तो मौलिकता के सम्मान का दूसरा नाम है।
स्त्री का सौंदर्य उसकी भिन्नता है,
उसकी कोमलता और सृजनशीलता है।
यदि यह खो गया,
तो समानता केवल खोखला शब्द बनकर रह जाएगी।
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✧ मौन की भाषा ✧
स्त्री ईश्वर को खोजती नहीं —
वह जीती है।
उसका मौन ही उसका ज्ञान है,
उसकी करुणा ही उसका धर्म।
वह पुरुष के लिए मात्र सहयोगिनी नहीं,
बल्कि उसकी अधूरी आत्मा का दर्पण है।
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✧ सिंहासन का रूपक ✧
स्त्री स्वयं में सिंहासन है।
पूर्ण, अचल, चार दिशाओं पर टिका हुआ।
पर पुरुष उसमें बैठने की चेष्टा करता है।
अपूर्णता में बैठकर वह सिंहासन को भी हिला देता है,
और स्वयं भी गिर पड़ता है।
स्त्री तब हार जाती है,
जब अपनी गरिमा भूलकर
पुरुष की नकल करने लगती है।
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✧ इतिहास की गवाही ✧
यदि स्त्री केवल गुलाम होती,
तो यह भूमि कभी विश्वगुरु न बनती।
क्योंकि जिन पुरुषों ने धर्म और दर्शन रचे,
उनकी जड़ों में स्त्री की ही मौन शक्ति थी।
राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर —
ये सब केवल पुरुष नहीं थे,
इनके पीछे स्त्री की अदृश्य साधना थी।
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✧ निष्कर्ष ✧
स्त्री और पुरुष का मेल बराबरी में नहीं,
मौलिकता के सम्मान में है।
स्त्री सृजन है,
पुरुष रक्षा है।
स्त्री प्रेम है,
पुरुष संकल्प है।
जब दोनों अपनी-अपनी मौलिकता को स्वीकार कर
संतुलन में खड़े होते हैं —
तभी जीवन पूर्ण होता है,
और तभी समाज में धर्म का पुनर्जन्म होता है।