भाग 1 : परिचय
अध्याय 1 : गाँव और मासूमियत
प्रतापपुर गाँव की सुबह किसी पुराने भजन जैसी होती थी—धीमी, मधुर और आत्मा को छू लेने वाली। जब पूर्व दिशा से सूरज की लालिमा आसमान पर बिखरती, तो ऐसा लगता मानो धरती ने सुनहरा आँचल ओढ़ लिया हो। खेतों में ओस की बूँदें मोतियों की तरह चमकतीं और हवा में मिट्टी की खुशबू घुल जाती।
गाँव का जीवन सरल था। लोग सूर्योदय से पहले उठते, पशुओं की देखभाल करते और फिर खेतों में जुट जाते। औरतें कुएँ से पानी भरतीं, आँगन लीपतीं और लोकगीत गातीं। बच्चे स्कूल जाने से पहले नदी किनारे नहाने जाते और फिर खेलकूद में खो जाते।
उसी गाँव में अर्जुन रहता था। वह पंद्रह साल का था—दुबला-पतला, गेहुँआ रंग, आँखों में गहरी चमक। पिता गरीब किसान थे, माँ गृहिणी। आर्थिक स्थिति कमजोर थी, मगर अर्जुन का मन पढ़ाई और सपनों में डूबा रहता। उसके अंदर कुछ बनने की लगन थी, और सबसे बड़ी बात—दिल बहुत साफ़ था।
सावित्री, दूसरी ओर, गाँव के ज़मींदार ठाकुर साहब की इकलौती बेटी थी। उसके घर की हवेली ऊँची दीवारों और नीले दरवाज़ों से घिरी थी। लोग कहते थे कि सावित्री राजकुमारी जैसी है—नाज़ुक, सुंदर और पढ़ी-लिखी। मगर उसकी सादगी उसे सबसे अलग बनाती थी।
उनकी पहली मुलाक़ात गाँव के मेले में नहीं, बल्कि बरसात के दिन नदी किनारे हुई थी। सावित्री खेलते-खेलते फिसल गई और उसके पाँव में चोट लग गई। भीड़ में से अर्जुन ही था जिसने उसकी मदद की। उसने अपनी गमछा फाड़कर पट्टी बाँधी और कहा—
“अब ठीक है। डरने की ज़रूरत नहीं।”
सावित्री ने उस दिन पहली बार उसे गौर से देखा। उसकी आँखों में ईमानदारी थी और आवाज़ में अपनापन।
यहीं से उनकी दोस्ती शुरू हुई।
धीरे-धीरे यह दोस्ती गहरी होती गई। स्कूल में सावित्री अक्सर गणित और हिंदी में कमजोर पड़ जाती, तो अर्जुन उसकी मदद करता। बदले में सावित्री उसके लिए अपनी हवेली से कभी किताब, कभी मिठाई चुपके से लाती। दोनों को लगता था जैसे वे एक-दूसरे की कमी पूरी कर रहे हों।
गाँव के बच्चे जब खेलते, तो अर्जुन और सावित्री भी शामिल होते। कभी कंचों में अर्जुन जीत जाता, तो सावित्री मुँह फुला लेती। अर्जुन हँसकर कहता—
“अगली बार तुम जीतोगी, वादा।”
सावित्री खिलखिलाकर हँस देती और उसका हँसना पूरे माहौल को रोशन कर देता।
लेकिन गाँव की चौकस निगाहें इस दोस्ती को मासूम नहीं मानती थीं। लोग कानाफूसी करने लगे। बुज़ुर्ग कहते—
“किसान का बेटा और ज़मींदार की बेटी? यह दोस्ती ज़्यादा दिन नहीं चलेगी।”
पर अर्जुन और सावित्री इन बातों से बेपरवाह थे। उनके लिए यह बंधन दुनिया से ऊपर था।
एक दिन शाम को, जब आसमान लाल हो रहा था और पक्षियों के झुंड लौट रहे थे, सावित्री ने अचानक पूछा—
“अर्जुन, क्या तुम सोचते हो कि हम हमेशा ऐसे ही मिलते रहेंगे?”
अर्जुन मुस्कुराया और बोला—
“हाँ, क्यों नहीं? दोस्ती कभी नहीं टूटती।”
सावित्री ने धीमी आवाज़ में कहा—
“पर अगर लोग हमें रोकें तो?”
अर्जुन ने उसकी आँखों में देखते हुए उत्तर दिया—
“फिर भी मैं तेरे साथ रहूँगा।”
उसे कहाँ पता था कि यह मासूम वादा एक दिन उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी परीक्षा बन जाएगा।