भगवद गीता में भगवान की पूजा (उपासना) को केवल बाहरी कर्मकांड तक सीमित नहीं बताया गया है, बल्कि उसे भक्ति, श्रद्धा और समर्पण पर आधारित बताया गया है।
गीता में पूजा के मुख्य स्वरूप:
1. श्रद्धा और भक्ति से पूजा
गीता (9.26) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं –
“पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतम् अश्नामि प्रयतात्मनः॥”
👉 अर्थात यदि कोई भक्त मुझे प्रेम और श्रद्धा से पत्र (पत्ता), पुष्प, फल या जल भी अर्पण करता है तो मैं उस भक्ति को स्वीकार करता हूँ।
→ यहाँ पूजा का मूल आधार भक्ति है, न कि भोग की मात्रा।
2. निष्काम भाव से पूजा
गीता (3.9) में कहा गया है कि सब कर्म भगवान के लिए समर्पित करने से ही मनुष्य बंधन से मुक्त होता है।
👉 पूजा का अर्थ है – हर काम को ईश्वर को अर्पण करना।
3. योग के रूप में पूजा
गीता (6.47) – “सर्वयोगिनामध्ये यः भक्त्या मामनुस्मरन्, स योगी परमः।”
👉 सभी योगियों में श्रेष्ठ वही है जो भक्ति से भगवान का स्मरण करता है।
→ पूजा केवल मंत्र-जाप ही नहीं, बल्कि ध्यान और स्मरण भी है।
4. समभाव से पूजा
गीता (9.29) – “समोऽहं सर्वभूतेषु…”
👉 भगवान सबमें समान हैं, इसलिए सबको समान दृष्टि से देखना भी पूजा का ही रूप है।
5. ज्ञान और भक्ति का संगम
गीता (7.16–18) में चार प्रकार के भक्त बताए गए हैं – आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी।
👉 इनमें सबसे श्रेष्ठ ज्ञानी भक्त है, क्योंकि वह भगवान को प्रेमपूर्वक जानकर पूजा करता है।
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सार:
गीता के अनुसार पूजा का अर्थ है –
✅ भक्ति और श्रद्धा से अर्पण करना
✅ कर्म, ध्यान और ज्ञान को भगवान को समर्पित करना
✅ समभाव से सबको देखना और सेवा करना
✅ अंतर्मन से ईश्वर का स्मरण करना
👉 यानी पूजा केवल मूर्ति, फूल, दीपक तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन जीने का ईश्वरमय दृष्टिकोण ही असली पूजा है।