मानव पर मानव का इतना प्रभाव, कि उसने सत्य को परे धकेल दिया है। अब लोग परम सत्य, मौन, या ईश्वर की खोज में नहीं, बल्कि दूसरे इंसानों की स्वीकृति, प्रशंसा और भय में जी रहे हैं। परिणाम यह कि जो वास्तविकता में ईश्वर है, वह ओझल है; और जो मात्र प्रभाव, पद, या लोकप्रियता है — वही “भगवान” बना दिया गया है।
यह पाखंड इतना बढ़ गया है कि इस युग में सत्य की खोज करना, झूठ के विरुद्ध खड़ा होना, या भीड़ से अलग सोचना — सब “अशोभनीय” और “खतरनाक” माना जाने लगा है। यह युग सचमुच शर्म की अंतिम सीमा पर खड़ा है, क्योंकि यहाँ सत्य बोलना अपराध है और झूठ को पूजना संस्कार।
१.
मानव का मानव पूजे,
सत्य रहा गँवाय।
गुरु कहे “मैं ही भगवान”,
चेले ढोल बजाय।।
२.
धर्म बने है मोल का,
सतगुरु बिके बजार।
भक्त कहे गुरु अमर है,
गुरु का अमर व्यापार।।
३.
माला, तिलक, चादर ओढ़े,
भीतर चोर बसाय।
नाम लेय सतनाम का,
कर्म सभी हरजाय।।
४.
जिनके हाथ में सच था,
वे ही बेचने लगे।
सत्य रखा कोठरी में,
झूठा राग जगे।।
५.
कबीर कहे गुरु वो नहीं,
जो चेला बाँध लेय।
गुरु तो वही जो सत्य दे,
भूल भुलैया छाँट देय।।
६.
सतगुरु के नाम पर,
चले मदारी खेल।
सत्य को बंदी कर दिया,
झूठ चढ़ा हथ मेल।।
७.
कबीर कहे सुनो रे साधो,
यह कलियुग की रीत।
झूठ यहाँ माला जपे,
सत्य करे पीट।
अज्ञात अज्ञानी