मैं लिखता हूँ, पर कह नहीं पाता
मैं लिखता हूँ-क्योंकि काग़ज़ मेरे टूटने को जगह देता है, बिना कोई सवाल पूछे।
मैं कह नहीं पाता-क्योंकि जुबान पर आते ही शब्द अपने ही अर्थ से डर जाते हैं।
पन्नों में मैं धीरे-धीरे बहता हूँ-आवाज़ में मैं खुद से टकरा जाता हूँ।
लिखना मेरे लिए भीतर उतरने जैसा है, जबकि कहना खुद से बाहर निकलने जैसा।
इसलिए लिखता हूँ थोड़ा और, और कहता हूँ थोड़ा कम।
lotus 🪷