कभी-कभी शब्द बोझ बन जाते हैं…
वो बोझ, जो किसी और के लिए बस कुछ पंक्तियाँ हैं, लेकिन किसी टूटे हुए मन के लिए पूरी दुनिया होती हैं।
“शब्दों के बोझ” मेरी आत्मा से निकली एक ऐसी कहानी है, जो शायद आपके भीतर के राघव को छू ले।
राघव — एक साधारण इंसान, पर असाधारण तकलीफ़ें झेलता हुआ।
जिसने बार-बार लोगों को समझाने की कोशिश की,
पर हर बार, या तो अनसुना किया गया, या मज़ाक बना दिया गया।
“जब कोई चीज़ बार-बार कहनी पड़े,
तो शायद वो चीज़ कहने लायक नहीं रही।
या फिर कहने वाला थक चुका है।”
कितनी बार हम यही करते हैं ना?
किसी अपने से कुछ कहना चाहते हैं,
पर सामने वाला मोबाइल में उलझा होता है —
“बोल ना, मैं सुन रहा हूँ।”
पर असल में, वो सुन नहीं रहा, समझ नहीं रहा।
राघव की सबसे बड़ी गलती यही थी —
उसने लोगों से वैसी ही उम्मीद की, जैसी वो खुद था।
सच्चा, ईमानदार, भावुक।
लेकिन हर बार उसे चुप्पी मिली, या ताने।
फिर एक दिन, उसने अपनी डायरी में लिखा —
“मुझे कोई नहीं समझा, पर मैं खुद को समझता हूँ।”
यही आत्मबोध की शुरुआत थी।
अब वो कम बोलता है, पर गहराई से जीता है।
अब उसे दूसरों की मंज़ूरी नहीं चाहिए —
बस आइने में खुद से नज़र मिलाना आता है।
“जब बोल-बोलकर थक जाओ,
तब चुप्पी सबसे ऊँची चीख बन जाती है।”
“शब्दों के बोझ” कोई कहानी नहीं —
ये उन अनकहे एहसासों की दास्तान है,
जो हर उस दिल ने जिए हैं,
जिसे कभी किसी ने नहीं सुना।
अगर आपने कभी खुद से बात की है,
या अपनी खामोशी को दोस्त बनाया है,
तो ये किताब आपके लिए है।
✍🏻 लेखक: धीरेन्द्र सिंह बिष्ट
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