कहानी: दस रुपए
स्टेशन पर भीड़ कम थी, पर आवाज़ें अब भी गूंज रही थीं।
आख़िरी लोकल के दरवाज़े से तीन चेहरे उतरते हैं —
थकी हुई सी ऋतु,
मुस्कुराता हुआ विजय,
और बातों में खोई स्नेहा।
ऋतु की चाल में थकान थी —
पर आँखों में एक हल्की-सी चमक भी,
जैसे खुद से कह रही हो,
"बस घर पहुंच जाऊं, फिर सब ठीक लगेगा..."
जेब टटोलती है —
एक सिक्का नहीं…
सिर्फ एक नोट — दस रुपए का।
"बस इतने ही?"
हँसी आती है कभी-कभी खुद पर —
वो हँसी जो आँखों के कोनों तक नहीं पहुँचती।
स्नेहा ने पूछा, "ऋतु, रिक्शा लें क्या? चलो ना, बहुत थक गए हैं!"
विजय बोला, "मैं पैसे दे दूँ यार, छोड़ न ये आदतें।"
ऋतु ने हल्का-सा सिर हिलाया।
"नहीं, मुझे एक दुकान से कुछ लेना है… आप लोग निकलो।"
स्नेहा ने दो बार पूछा, विजय ने मुस्कुरा कर हाथ हिलाया —
और फिर दोनों भीड़ में कहीं खो गए।
ऋतु ने गहरी साँस ली।
वो साँस जो सिर्फ़ थकान की नहीं थी,
वो साँस जो फैसले जैसी लगती है।
उसकी चाल अब बदल गई —
तेज नहीं,
पर ठोस — जैसे कोई अपने मन के भीतर चल रहा हो।
सड़क के दोनों ओर रोशनी थी —
पकोड़ों की खुशबू,
फ्राइज़ की चमक,
और ठेले पर रखे रसदार गुलाब जामुन।
एक दुकान से आवाज़ आई —
"दस के दो समोसे! गरम गरम!"
पैर रुक गए।
मन भी वहीं बैठ गया।
लेकिन दिमाग ने कहा —
"तेल... पेट दर्द... नहीं चाहिए।"
कुछ आगे —
जूस की दुकान।
"10 का मिक्स फ्रूट।"
प्यास थी, लेकिन खाली पेट पर सिर्फ़ रस?
"नहीं..."
हर दुकान के सामने जाकर खड़ी हुई,
फिर चल दी।
बार-बार जेब में हाथ डालती,
दस रुपए की तह खोलती,
फिर मोड़कर रख देती।
वो सिर्फ़ भूख से नहीं जूझ रही थी,
वो एक चयन कर रही थी — पेट या भविष्य।
रास्ता खत्म हो गया —
दुकानें पीछे रह गईं।
घर आ गया।
चप्पल उतारी,
थोड़ी देर दरवाज़े पर बैठी रही।
अंधेरे में उस दस रुपए के नोट को
एक बार और देखा।
"कल रिक्शे का किराया बनेगा,
या शायद एक ब्रेड का पैकेट…
लेकिन आज ये मुझे खुद पर गर्व दे गया है।"
ऋतु मुस्कुराई —
भूख से नहीं,
पर एक अद्भुत संतोष से।
---
अंत में...
पाठक के लिए ऋतु अब सिर्फ़ एक किरदार नहीं —
हर वो स्त्री,
हर वो लड़का,
हर वो इंसान है
जिसने कभी 10 रुपए को
महज़ नोट नहीं,
बल्कि अपनी इच्छा और विवेक का पलड़ा माना है।