"छोटे कंधों पर बड़े प्रवचन"
आजकल कुछ फूल इतने जल्दी खिलते हैं कि इत्र से पहले उनके दाम तय हो जाते हैं। उम्र जहाँ खिलौनों से खेलनी चाहिए थी, वहाँ अब कैमरों के सामने श्लोकों की बारिश होती है — जैसे बचपन अब भावनाओं की मार्केटिंग का नया चेहरा बन गया हो।
ज्ञान का वजन तब भारी लगता है जब वो किसी और की उँगलियों से स्क्रिप्ट बनकर निकलता है, और मासूम आँखों में चमक से ज़्यादा मैनेजमेंट झलकता है। भक्तों की भीड़ अब ज्ञान में नहीं, “क्यूटनेस” में मोक्ष ढूंढती है।
जिस दौर में अनुशासन सिखाया जाना चाहिए, वहाँ अब चाटुकारिता पर ताली बजती है। और सबसे मज़ेदार बात? मंच बड़ा हो तो प्रश्न पूछना गुनाह बन जाता है — भले ही मंच पर खड़ा आदमी अभी तक गणित की दूसरी कक्षा भी पास न कर पाया हो।
बचपन अब संस्कारों की नहीं, संगठन की संपत्ति बन गया है। और भक्ति? वो अब शॉर्ट्स, स्टोरीज़ और सब्सक्राइबर काउंट में सिमट कर रह गई है।