पंक्षी नही मैं पर पिंजरे में कैद लगती हूं
बहता पानी नही हूं मैं पर एक किनारा लगती हूं
झूल लूं मैं बनकर झूला पर कमजोर डोर लगती हूं
कह लूं मैं किसी से अपनी दिल की जज्बात पर अधूरी अल्फाज लगती हूं
आईने से डर लगता है मुझे अब क्युकी मैं अपने अतीत को भूल जाती हूं
संवार लूं मैं खुद के उलझे और बिखरे बाल पर खुद को ही खुद के नजरों से बेघर लगती हूं,,,,,,,,
Manshi K