जिय ! काहे क्रोध करै |
देख के अविवेक प्रानी, क्यों न विवेक धरै || टेक ||
जिसे जैसी उदय आवै, सो क्रिया आचरै |
सहज तू अपनो बिगारै, जाय दुर्गम परै || १ ||
होय संगति गुन सबनि को, सरब जग उच्चरै |
तुम भले कर भले सबको, बुरे लखि मति जरै || २ ||
वैद्य परविष हर सकत नहीं, आप भाखि को मरै |
बहु कषाय निगोद - वासा, ‘द्यानत’ क्षमा धरै || ३ ||
Artist- पं. द्यानतराय जी
🙏🏻
- Umakant