कोई दिन ऐसा भी आया क्या
तुम जी पाई हो अपने लिए
तुम मर पाई हो अपने लिए
कभी खुल कर हँसना सीखा हो
किसी ख़्वाब को छू कर देखा हो
जागी हो अपनी सुब्हों में
कभी सोई अपनी आँख से तुम
डाली हो अपनी झोली में
कभी चाहत अपने हिस्से की
कभी तन्हाई के प्याले में
कोई लम्हा अमृत जैसा भी
कभी रूह के सहरा में गूँजा
कोई नाम ख़ुदा से प्यारा भी
कभी ज़ंग-आलूद किवाड़ों पर
किसी गीत ने कोई दस्तक दी
कभी गूँगे बहरे लम्हों में
आसेब कोई हम-ज़ाद कोई
कभी दिल का बोझ उतारा भी
कोई दिन ऐसा भी आया क्या
तुम जी पाई हो अपने लिए
तुम मर पाई हो अपने लिए
…..फ़रहत ज़ाहिद
- Umakant