मैं और मेरे अह्सास
हर जगह हर लम्हा अपनों से कटता चला गया l
हर हसी मंजर बहुत ही जल्दी छुटता चला गया ll
न जाने कौन सी कमी रह गई रिश्ता निभाने में l
आज मुट्ठी से हर एक जुगनू मिटता चला गया ll
पूरी क़ायनात में एक हम ही रईस दिखे उसे तो l
हर पल झोली से कुछ न कुछ लुटता चला गया ll
सखी
दर्शिता बाबूभाई शाह