विषय - मन के घाव
एक स्त्री के मन की बातें,
जब कोई नहीं समझ पाता है।
अंदर ही अंदर घुटकर जीने से,
दिल दिमाग अवसादों से घिर जाता है।।
माता पिता की सहमति से,
जिसकी संगिनी बन नए घर आती।
नए नए सपनों के साथ में,
अपने नए घर संसार को सजाती।।
घर परिवार में संबंध विच्छेद न हो,
न गलत होते हुए भी वह झुक जाती।
अपने साथी के अलग विचारों से भी,
अपने विचारों को वह मिलाती।।
जिस घर को वह अपना समझकर,
सारे कर्तव्यों को निभाती हैं।
वहीं छोटी सी गलती होने पर,
उलाहना दोषों से भर दी जाती हैं।।
माता पिता की याद आने पर,
मायके जाने नहीं दिया जाता है।
विवाह बाद एक परिवार के लिए,
क्या दूसरे परिवार से मुंह मोड़ लिया जाता है।।
कुछ कही,कुछ अनकही बातें,
एक स्त्री के हृदय को भेदती है।
मन में हो रहे अनेकों घावों को,
अंदर ही अंदर नासूर बन चुभती है।।
अपना कहने और अपना समझने में,
बहुत बड़ा अंतर होता है।
खून की तरफ ही लोगों का,
झुकाव हमेशा ही होता है।।
कहने को ससुराल अपना घर होता,
पर बार बार पराए घर जैसा एहसास कराया जाता।
निकाल दिए जाने की धमकी देकर,
हर बार उसको चुप कराया जाता।।
उसके मां बाप की परवरिश पर,
कोई भी उंगली नहीं उठा पाए।
इस लिए बेज्जती का घूंट पीकर,
अश्रु पीकर सब सह जाए।।
पर मन की यह पीड़ा उसकी,
अंदर ही अंदर उसे खा जायेगी।
घाव जब नासूर बन जायेंगे तब,
बिखरकर मिट्टी में मिल जायेगी।।
किरन झा (मिश्री)
-किरन झा मिश्री