“लगता है मेरे जीवन में सब कुछ ही था सृजन तुम्हारा,
संग तुम्हारे विदा हुआ सब और नगर में आग लग गई।
पल पल टूट रहा था सब कुछ चुपके चुपके भीतर भीतर
तुमने हर टूटन पहचानी सब को जोड़ा सब को साधा,
मौसम बदला तुम उस मौसम मेंबादल से बनकर आये
ऐसा बादल जो बरसा तो लेकिन हाँ बरसा बस आधा !
हवा हुयी विपरीत न जाने कहाँ खो गया वचन तुम्हारा,
ऐसी बिजली कड़की सारे ही अंबर में आग लग गई !
- ज्ञान प्रकाश आकुल की फेसबुक वाल से साभार
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