“अब करम की भी दिल को ताब नहीं,
किस तरह फुश्तये-जफा हैं हम
गुझारी उम्र सारी राझे-हस्ती के समझने में
परस्तिश तेरी करता, इतनी फुरसतथी कहाँ मुझको ?
अब करम की भी दिल को ताब नहीं,
किस तरह फुश्तये-जफा हैं हम
गुझारी उम्र सारी राझे-हस्ती के समझने में
परस्तिश तेरी करता, इतनी फुरसतथी कहाँ मुझको ?
झबां पे हर्फे -तमन्ना ‘असर’ न आया था,
कि वो निगाह फिरी, क्यों फिरी? नहीं मालुम
खुगरे -दर्द अगर इन्सा ,
रंज में भी मझा है राहत का
झबां पे हर्फे-तमन्ना ‘असर’ न आया था,
कि वो निगाह फिरी, क्यों फिरी? नहीं मालुम
खुगरे -दर्द अगर इन्सा ,
रंज में भी मझा है राहत का “
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