शीर्षक: हताशा
बात आसमां की थी और मैं धरती पर था
ये ही एक ख्याल था, जिस से मैं घायल था
राह गुजर ही कहूंगा इसे, मंजिल का नाम न था
सफ़र समझ कर जी रहा, ये जीने का प्रमाण था
भूलों को न समझ, खुद में उलझना इतफाक न था
कभी न सोचा, खिड़कियों को खोलना भी प्रयास था
बेअदब हुई जिंदगी अब दुआओं पर भरोसा जतलाती
पागल सी हुई, पैबंद लगे आवरण पर अब भी इठलाती
उम्र की दहलीज पर दीपक की रोशनी भी धुंधला जाती
किसी भी राह जाऊं अब कदमों में थकावट सी आ जाती
अहमियत अगर होने की थोड़ी बहुत भी समझ मेंआती
तो नासमझी के सूर्य से निकली किरणे मंजिल को दर्शाती
'कमल' अफसोस करके अब हताशा को और पनाह न दे
कुछ कदम आगे बढ़, देखे सपनों को अब तन्हा न रहने दे
✍️ कमल भंसाली