बीच भँवर में फँसी हुई हूँ,
उलझनों में उलझी हुई हूँ ।
किस ओर चलूँ, है तकरार,
जिस ओर चलूँ, है मझधार ।
खुद अंतर्मन में जूझ रही हूँ ,
असमंजस में घिरी हुई हूँ ।
भँवर में फँसी कश्ती की माँझी हूँ मैं,
बेख़ौफ़ सफर करने की आदी हूँ मैं ।
नैया पार उसी माँझी की लगी जिसने
अपने अडिग हौसलों से तूफ़ानों का रूख मोड़ दिया,
नाव उसी की डूबी जिसने साहस अपना छोड़ दिया ।
मोड़ दे रूख तूफ़ानों का, बस बात है ये पतवार चलाने की,
तू वो माँझी है जिसको आदत है तूफ़ानों से टकराने की ।