गजल
है आज अंधेरा जानिब और नूर की बातें करते हैं
नजदिक की बातें से खाइक दूर की बातें करतें हैं
तामीर-ओ-तरक्की वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
जो शीश-महल में बैठे हुए मजदूर की बातें करते हैं
ये लोग वही है जो कल तक तंजीम-ए-चमन के दुश्मन थे
अब आज हमारे मुंह पर ये दस्तुर की बातें करते है
इक भाई को दुजे भाई से लडने का जो देते हैं पैगाम
वो लोग न जाने फिर कैसे जम्हुर की बातें करते हैं
इक ख्याब की वादी है जिसमें रहते हैं हंमेशा खोए हुए
धरती पे नहीं हैं जिन के कदम वो तूर की बातें करते हैं
हमको ये गिला महबूब उन्हे अफसाना-ए-बज्म-ए-ऍश-ओ--तरब
शिकवा ये उन्हे हम उन से दिल-ए-रंजूर बातें करते हैं
क्या खूब अदा है की 'उबैद अंदाज-ए-करम है कितना हसिं
मजबूर के हक से ना-वाकिफ मजबूर की बातें करते हैं
........ ओबेदुर रहमान